________________
४६
मूलाचारआगे फिर दृढ परिणामोंको दिखलाते हैं;लद्धं अलद्धपुवं जिणवयणसुभासिदं अमिदभूदं । गहिदो सुग्गइमग्गो णाहं मरणस्स बीहेमि ॥ ९९ ॥
लब्धमलब्धपूर्व जिनवचनसुभाषितं अमृतभूतं । गृहीतः सुगतिमार्गः नाहं मरणाद्विभेमि ॥ ९९ ॥
अर्थ-क्षपक विचारता है कि मैंने प्रमाणनयसे अविरुद्ध सुखका कारण, पूर्व नहीं पाया ऐसे जिनवचनको प्राप्त किया
और मोक्षमार्ग भी ग्रहण किया । अब मैं मरणसे नहीं डरता ॥ भावार्थ-जबतक अज्ञान था तबतक यथार्थवरूप नहीं जाना इसलिये मरणका डर था, अब जिनवचनसे यथार्थ खरूपका ग्रहण हुआ मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति हुई तब मरणका भय जाता रहा ॥९९॥ धीरण वि मरिदव्वं णिद्धीरेणवि अवस्स मरिदव्वं । जदि दोहिं विमरिदव्वं वरं हि धीरत्तणेण मरिदब्वं १००
धीरेणापि मर्तव्यं निधैर्येणापि अवश्यं मर्तव्यं । यदि द्वाभ्यामपि मर्तव्यं वरं हि धीरत्वेन मर्तव्यम् ॥१०॥ अर्थ-क्षपकविचारता है कि धीर (दृढचित्त) भी मरेगा और धैर्यरहित भी अवश्य मरेगा । यदि दोनों तरहसे ही मरना है तो धीर (क्लेशरहित) पनेसे ही मरना श्रेष्ठ है, कायरपनेसे पापबंध विशेष करता है इसलिये मरणसमय कायर नहीं होना चाहिये ॥ १००॥ सीलेणवि मरिदव्वं णिस्सीलेणवि अवश्य मरिदव्वं । जइ दोहिंवि मरियव्वं वरंहु सीलत्तणेण मरियव्वं१०१