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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २। ४५ निवृत्तिरूप चारित्र ही मेरे शरण है, बारहप्रकार तप और इंद्रिय प्राण संयम ही शरण है तथा अनंत ज्ञान सुखादि सहित श्रीमहावीरखामी हितोपदेशी ही शरण हैं । इनके सिवाय अन्य कुदेवादिका शरण मेरे नहीं है ॥ ९६ ॥
आगे आराधनाके फलको कहते हैंआराहण उवजुत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्म । उक्कस्सं तिणि भवे गंतूण य लहइ णिव्वाणं ॥९७॥
आराधनोपयुक्तः कालं कृत्वा सुविहितः सम्यक् । उत्कृष्टं त्रीन् भवान् गत्वा च लभते निर्वाणम् ॥ ९७॥
अर्थ-सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाकर उपयुक्त हुआ अतीचार रहित आचरणवाला जो मुनि वह अच्छीतरह मरणकर उत्कृष्ट तीन भव पाकर निर्वाण (मोक्ष) को पाता है ॥ ९७ ॥ __ ऐसा सुनकर क्षपक कारणपूर्वक परिणाम करनेका अभिलाषी हुआ कहता हैसमणो मेत्ति य पढमं बिदियं सव्वत्थ संजदो मेत्ति । सव्वं च वोस्सरामि य एवं भणिदं समासेण ॥ ९८॥
श्रमणो मम इति च प्रथमः द्वितीयः सर्वत्र संयतो ममेति । सर्व च व्युत्सृजामि च एतद् भणितं समासेन ॥ ९८॥
अर्थ-क्षपक विचारता है कि मैं प्रथम तो श्रमण अर्थात् समरसीभावकर सहित हूं और दूसरे सब भावोमें संयमी हूं इसकारण सब अयोग्य भावोंको छोडता हूं । इसतरह संक्षेपसे आलोचना कहा ॥ ९८॥