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मूलाचार
। इसलिये तुझको जिनवचनका आश्रय
त्रयका खामी होता है नहीं छोडना चाहिये ॥
९४ ॥
आगे मरणके समय पीडा हो तो कौनसी औषधि करना उसे कहते हैं;
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं । जरमरण वाहिवेयण खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ ९५ ॥ जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनं अमृतभूतं । जरामरणव्याधिवेदनानां क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ॥ ९५ ॥ अर्थ - यह जिनवचन ही औषध है । जो कि इंद्रिय जनित विषयसुखोंका विरेचन करनेवाली ( दूर करनेवाली ) है, अमृतखरूप है और जरा मरण व्याधि वेदना आदि सब दुःखोंका नाश करनेवाली है । भावार्थ जैसे औषधि रोगोंको मिटा देती है उसी तरह जिनवाणी भी जन्ममरण आदि दुःखों को मिटाके अमर पदको प्राप्त करदेती है । इसलिये अमृत औषधि जिनवचन ही हैं ॥ ९५ ॥
आगे उस समय शरण क्या है यह बतलाते हैं;णाणं सरणं मेरं दंसणसरणं च चरियसरणं च । तव संजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो ॥ ९६ ॥ ज्ञानं शरणं मम दर्शनशरणं च चारित्रशरणं च । तपः संयमश्च शरणं भगवान् शरणो महावीरः ॥ ९६ ॥ अर्थ – हे क्षपक तुझे ऐसी भावना करनी चाहिये कि, मेरे यथार्थ ज्ञान ही शरण ( सहायक ) है, प्रशम संवेग अनुकंपा आस्तिक्यकी प्रगटतारूप सम्यग्दर्शन ही शरण है, आस्रव बंधक