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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २। २१ रहित) भावको प्राप्त हुआ हूं। मेरे आत्मा ही आलंबन (आश्रय) है शेष सबका त्यागकरता हूं अर्थात् अनंत ज्ञानादि व रत्नत्रयादि आत्मगुणोंके सिवाय अन्य सबका त्याग है ॥ ४५ ॥
आगे कोई यह कहे कि तुमने सबका त्याग किया परंतु . आत्माका त्याग क्यों नहीं किया इसका उत्तर कहते है;
आदा हु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोए ॥४६॥ आत्मा हि मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च ।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ॥४६॥ अर्थ-मेरा आत्मा प्रगटपनेसे ज्ञानमें है, मेरा आत्मा दर्शन (श्रद्धान-आलोकन) में है, मेरा आत्मा पापक्रियाकी निवृत्तिरूप चारित्रमें है, मेरा आत्मा प्रत्याख्यानमें है, मेरा आत्मा आस्रवके निरोधरूप संवरमें तथा शुभव्यापाररूपयोगमें है-इसलिये इसका त्याग कैसे करसकते हैं? नहीं करसकते ॥ ४६ ॥
आगे फिर भी कहते हैंएओं य मरइ जीवो एओ य उववजह । एयस्स जाइमरणं एओ सिज्झइ णीरओ॥४७॥
एकश्च म्रियते जीव एकश्च उत्पद्यते। एकस्य जातिमरणं एकः सिध्यति नीरजाः ॥४७॥
अर्थ-यह जीव अकेला (सहाय रहित) मरता (शरीरका त्याग करता) है, और यह चेतनखरूप अकेला ही उपजता है। इस बकेलेके ही जन्म मरण होते हैं तथा जब कर्मरजसे रहित