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मूलाचार
उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ मग्गबिवडिवण्णो य । मोहेण य मोहंतो संमोहेसूववज्जेदि ॥ ६७ ॥ उन्मार्गदेशकः मार्गनाशकः मार्गविप्रतिपन्नश्च । मोहेन च मोहयन् संमोहेषु उत्पद्यते ॥ ६७ ॥ अर्थ — जो मिथ्यात्वादिका उपदेश करनेवाला हो, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप मोक्षमार्गका विरोधी ( नाशक ) हो अर्थात् मार्गसे विपरीत अपना जुदा मत चलाता हो - ऐसा साधु मिथ्यात्व तथा मायाचारीसे जगतको मोहता हुआ स्वच्छंद देव - दुर्गतिमें उत्पन्न होता है ॥ ६७ ॥
आगे आसुरीभावना और उससे उत्पन्न होनेका स्थान वतलाते
हैं; -
खुद्दी कोही माणी मायी तह संकिलिट्ठ तव चरिते । अणुबद्धवेररोई असुरेसुववज्जदे जीवो ॥ ६८ ॥
क्षुद्रः क्रोधी मानी मायावी तथा संक्लिष्टः तपसि चरित्रे । अनुबद्धवैररोची असुरेषूपपद्यते जीवः ॥ ६८ ॥
अर्थ — दुष्ट क्रोषी अभिमानी मायाचारी और तप तथा चारित्र पालने में क्लेशित परिणामों सहित और जिसने वैर करमें बहुत प्रीति की है ऐसा जीव आसुरीभावनासे असुर जातिके अंबर अंबरीषनामा भवनवासी देवोंमें उत्पन्न होता है ॥ ६८ ॥ यह पांचवीं असुरदेवदुर्गतिका स्वरूप है ।
आगे व्यतिरेकद्वारा बोधिको कहते हैं:मिच्छादंसणरत्ता सणिदाणा किण्हलेसमोगाढा । इह जे मरंति जीवा तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥ ६९ ॥