________________
३८.
मूलाचारसंतुष्ट नहीं होता । अधिक मिलनेसे तृष्णा अधिक बढती जाती है ॥ ८०॥ ___ आगे परिणाममात्रसे ही बंध होता है यह कहते हैं;कंखिदकलुसिदभूदो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो। अभुंजतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्झेइ ॥८१॥ कांक्षितकलुषितभूतः कामभोगेषु मूच्छितः सन् । अभुंजानोपि च भोगान् परिणामेन निबध्यते ॥ ८१॥ अर्थ-जो काम भोगोंकी इच्छा करनेवाला, रागद्वेषादि मलिनभावोंसे पीड़ित हुआ काम भोगोंमें मूच्छित होता है वह जीव संसार सुखके कारण भोगोंको न भोगता हुआ भी चित्तके व्यापाररूप परिणामोंसे आप कर्मोंकर बँध जाता है परवश हो जाता है ।। ८१॥
आगे इच्छामात्रसे ही विना भोगा पाप बंध होता है यह कहते हैंआहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तमी पुढविं। सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदं ॥८२॥
आहारनिमित्तं किल मत्स्या गच्छंति सप्तमी पृथिवीं । सचित्त आहारो न कल्प्यते मनसापि प्रार्थयितुम् ॥ ८२॥
अर्थ-आगममें ऐसा कहा है कि आहारके कारण ही तंदुल मच्छ मनके दोषकर सातवें नरक जाता है इसलिये जीवघातसे उत्पन्न हुआ सचित्त आहार मनसे भी याचना करने योग्य नहीं है ॥ ८२ ॥
आगे आचार्य क्षपकको कहते हैं कि यदि सावद्य आहार