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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २।
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कका खरूप चितवन करना तथा जन्म जरा मरणरूप संसारमें भ्रमण करते हुए मैंने कौनसे दुःख नहीं पाये ऐसे दुःख तो बहुत पाये हैं ॥ ७८॥ __ आगे संसारमें कैसे २ दुःख पाये उनको कहते हैंसंसारचकवालम्मि मए सव्वेपि पोग्गला बहुसो। आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती॥७९॥ संसारचक्रवाले मया सर्वेपि पुद्गला बहुशः । आहृताश्च परिणामिताश्च न च मे गता तृप्तिः ॥ ७९ ॥
अर्थ-चतुर्गति जन्ममरणरूप संसारचक्रमें भ्रमण करते हुए मैंने दही खांड गुड़ चावल जल आदि सभी पुद्गल बहुत बार भक्षण किले और खल रसरूपकर जीर्ण किये तौभी मेरे तृप्ति (संतोष ) नहीं हुई, अधिक अधिक इच्छा ही होती गई ऐसा चितवन करना ॥ ७९ ॥
आगे किस दृष्टांतसे तृप्ति नहीं हुई उसका उत्तर कहते हैंतिणकटेण व अग्गी लवणसमुद्दी णदीसहस्सेहिं । ण इमो जीवो सको तिप्पे, कामभोगेहिं ॥८०॥
तृणकाष्टैरिवाग्निः लवणसमुद्रो नदीसहौः। न अयं जीवः शक्यः तृप्तुं कामभोगैः ॥ ८॥
अर्थ-जैसे तृण काठ बहुत डालनेपर भी अमि तृप्त नहीं होती, और परिवारनदियों सहित गंगा सिंधु आदि हजारों नदियोंसे भी लवणसमुद्र पूर्ण नहीं होता उसीतरह यह जीव भी वांछितसुखके कारण जो आहार स्त्री वस्त्रादि कामभोग हैं उनसे