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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २। ३१ अभियुंक्ते बहुभावान् साधुः हास्यादिकं च बहुवचनं । अभियोगैः कर्मभिर्युक्तो वाहनेषु उत्पद्यते ॥ ६५ ॥
अर्थ-जो साधु रसादिकमें आसक्त होके तंत्र मंत्र भूत कर्मादिक बहुत भाव करता है और हास्यपनेकी आश्चर्य उत्पन्न करानेकी वार्ता इत्यादि बहुत बोलता है वह अभियोगकर्मकर सहित हुआ वाहन जातिके हाथी घोड़े आदि खरूपके देवता
ओंमें उत्पन्न होता है ॥६५॥ __ आगे किल्विषभावनाका खरूप और उससे उत्पत्ति होनेका स्थान कहते हैंतित्थयराणं पडिणीउ संघस्स य चेइयस्स सुत्तस्स । अविणीदो णियडिल्लो किग्विसियेसूववज्जेइ ॥६६॥ तीर्थकराणां प्रत्यनीकः संघस्य च चैत्यस्य सूत्रस्य । अविनीतो निकृतिवान् किल्विषेषु उत्पद्यते ॥ ६६ ॥
अर्थ-जो साधु धर्मतीर्थके प्रवर्तानेवाले तीर्थंकरों के प्रतिकूल होता है, तथा ऋषि यति मुनि अनगार अथवा ऋषि श्रावक अर्यिका श्राविका अथवा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप-इस तरह चार प्रकारके संघका विनय नहीं करता है उद्धत रहता है, सर्वज्ञ देवकी प्रतिमाका और द्वादशांग चौदहपूर्वरूप परमागमका विनय नहीं करता तथा मायाचारसे ठगनेमें चतुर है वह किल्विपजातिके वाजे वजानेवाले देवोंमें उत्पन्न होता है ॥ ६६ ॥
आगे संमोहभावनाका खरूप और उससे उत्पत्ति होनेका स्थान वतलाते हैं