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मूलाचार
होजाता है तब अकेला ही सिद्ध ( मुक्त ) होता है । भावार्थयह जीव सब काल और सब अवस्थाओंमें अकेला ही है ॥४७॥ एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥४८॥
एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः । शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥४८॥
अर्थ-ज्ञानदर्शन लक्षणवाला एक मेरा आत्मा ही नित्य है, शेष शरीरादिक मेरे बाह्य पदार्थ हैं वे आत्माके संयोगसंबंधसे उत्पन्न हैं इसलिये विनाशीक हैं ॥ ४८॥
आगे कहते हैं कि संयोगलक्षणभावका त्याग क्यों करना चाहिये उसका उत्तर कहते हैंसंजोयमूलं जीवेण पत्ता दुक्खपरंपरा। तम्हा संजोगसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरे ॥४९॥
संयोगमूलं जीवेन प्राप्ता दुःखपरंपरा । तस्मात् संयोगसंबंधं सर्व त्रिविधेन व्युत्सृजामि ॥ ४९ ॥
अर्थ-इस जीवने परद्रव्यके साथ संयोगके निमित्तसे हमेशा दुःख भोगे इसलिये सब संयोग संबंधको मन वचन काय-इन तीनोंसे छोड़ता हूं ॥ ४९॥
आगे फिर भी दुश्चरित्रके त्यागकेलिये कहते हैं;मूलगुणउत्तरगुणे जो में णाराधिदो पमादेण । तमहं सव्वं णिंदे पडिक्कमे आगमिस्साणं ॥५०॥