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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २।। २३ मूलगुणोत्तरगुणेषु यो मया न आराधितः प्रमादेन । तमहं सर्व निंदामि प्रतिक्रमामि आगमिष्यति ॥ ५० ॥
अर्थ-मूलगुण (प्रधानगुण ) और उत्तर (विशेष) गुणइन दोनों प्रकारके गुणोंमेंसे जिनका मैंने आलस्यकर आराधन (सेवन ) नहीं किया उन सब अपने दोषोंकी मैं निंदा करता हूं, तथा आगामी कालमें जो गुण आराधनेमें न आवें उनके दोषोंकी भी निंदा करता हूं और प्रतिक्रमण ( त्याग ) करता हूं ॥ ५० ॥ अस्संजममण्णाणं मिच्छत्तं सव्वमेव य ममत्तिं । जीवेसु अजीवेसु य तं शिंदे तं च गरिहामि ॥५१॥
असंयममज्ञानं मिथ्यात्वं सर्वमेव च ममत्वं । . जीवेष्वजीवेषु च तत् निंदामि तच गर्हे ॥५१॥
अर्थ-पापके कारण असंयमभाव, श्रद्धानरहित वस्तुका जाननारूप अज्ञान भाव, - अश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव, और जीव तथा अजीवपदार्थों में ममताभाव-ऐसे सब भावोंकी मैं निंदा करता हूं तथा गर्दा करता हूं अर्थात् उनके दोषोंको प्रकट करता हूं ॥५१॥
आगे कोई प्रश्नकरे कि प्रमादसे दोष लगे हैं उनका तो त्याग किया परंतु प्रमादोंका त्याग क्यों नहीं किया उसका समाधान कहते हैंसत्त भए अट्ठ मए सण्णा चत्तारि गारवे तिण्णि । तेत्तीसदासणाओ रायद्दोसं च गरिहामि ॥ ५२॥