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मूलाचार
अर्थ-जो अपने ही भावमें प्रगटकर निंदा करने योग्य दोष हैं उनकी निंदा करता हूं अर्थात् यह मैंने दोष किया था ऐसा याद कर निषेधता हूं, आचार्यादिकोंके समीप प्रकाश करने योग्य मेरे दोष हैं उनकी आचार्यादिकोंके समीप गर्दी करता हूं और समस्त आभ्यंतर ममत्वभाव सहित बाह्य चेतन अचेतन परिग्रहकी आलोचना (परिहार ) करता हूं ॥ ५५ ॥
किस प्रकार आलोचना करना यह कहते हैं;जह बालो जप्पंतो कजमकजं च उजयं भणदि। तह आलोचेदव्वं माया मोसं च मोत्तूण ॥५६॥
यथा बालो जल्पन कार्यमकार्य च ऋजु भणति । तथा आलोचयितव्यं मायां मृषां च मुक्त्वा ॥ ५६ ॥
अर्थ-जैसे बालक पूर्वापर विवेक रहित बोलता हुआ कार्य अकार्यको कुटिलतारहित सरलवृत्तिसे कहता है, उसीतरह मन वचनकायकी कुटिलताकर छिपानेरूप माया तथा असत्यवचनोंको छोड़कर आलोचना करना योग्य है ॥ ५६ ॥ ___ आगे जिस आचार्यके पास आलोचना की जाय वह कैसे गुणोंवाला होना चाहिये यह कहते हैं;णाणम्हि दंसणम्हि य तवे चरित्ते य चउसुवि अकंपो। धीरो आगमकुसलो अपरस्सावी रहस्साणं ॥५७॥
ज्ञाने दर्शने च तपसि चरित्रे च चतुषु अपि अकंपः। धीरः आगमकुशलः अपरश्रावी रहस्यानाम् ॥ ५७॥ अर्थ-जो. आचार्य ज्ञानाचारमें, दर्शनाचारमें, तप आचा