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मूलाचारसप्त भयानि अष्टौ मदान् संज्ञाश्चतस्रः गौरवाणि त्रीणि । त्रयस्त्रिंशदासादनां रागद्वेषौ च गर्हे ॥ ५२ ॥
अर्थ-सात भय, आठमद, आहार भय मैथुन परिग्रह-इनकी अभिलाषारूप चार संज्ञा, ऋद्धिका गर्वरूप ऋद्धिगौरव-रसगौरवसात (सुख ) गौरव-ऐसे तीन गौरव, तेतीस पदार्थों की आसादना (परिभव ), प्रीतिरूप राग और अप्रीतिरूप द्वेष-इन सब भावोंका मैं आचरण नहीं करता त्याग करता हूं ॥ ५२ ॥
उनमेंसे प्रथम सात भय और आठ मदोंको कहते हैंइह परलोयत्ताणं अगुत्तिमरणं च वेयणाकस्सि भया। विण्णाणिस्सरियाणा कुलबलतवरूवजाइ मया ॥३॥ इहपरलोकौ अत्राणं अगुप्तिमरणं वेदना आकसिकं भयानि । विज्ञानमैश्वर्य आज्ञा कुलबलतपोरूपजातिः मदाः ॥५३॥
अर्थ-इसलोकभय, परलोकभय, अरक्षाका भय, गुप्त रहनेके स्थान (गढ-किला) न होनेका भय, मरनेका भय, शरीरादिकी पीडाका भयरूप वेदनाभय, विना कारण मेघगर्जनादिकसे उत्पन्न हुआ आकस्मिकभय-ये सात भय हैं । गणित काव्य गंधर्व संगीतादि विद्याका अभिमानखरूप विज्ञानमद, धनकुटुंब आदि बाह्य संपदाका अभिमानरूप ऐश्वर्यमद, वचनके उल्लंघन न होनेरूप आज्ञामद, पिता पितामहके उत्तम इक्ष्वाकु आदि वंशमें जन्म होनेरूप कुलका मद, शरीरकी शक्तिके अभिमानरूप बलमद, कायको संताप देनेका अहंकाररूप तपोमद, शरीरकी सुंदरता लावण्यताका अभिमानखरूप रूपमद, माताकी पक्षकी परि.