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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २ ।
अभ्यंतर परिग्रह, आहार और शरीरादिक इन सबका मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करता हूं अर्थात् इनसे ममत्व छोड़ता हूं ॥ ४०॥
सव्वं पाणारंभं पञ्चक्खामि अलीयवयणं च । सव्वमदत्तादाणं मेहूण परिग्गहं चेव ॥४१॥
सर्व प्राणारंभं प्रत्याख्यामि अलीकवचनं च ।
सर्वमदत्तादानं मैथुनं परिग्रहं चैव ॥४१॥ अर्थ-जीवघातके परिणामरूप हिंसा, झूठ वचन, अदत्तादान (चोरी) स्त्रीपुरुषके अभिलाषरूप अब्रह्म और बाह्य आभ्यंतररूप सब परिग्रह-इन सब पापोंको मैं छोड़ता हूं ॥ ४१॥
आगे सामायिकका खरूप कहते हैंसम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि । आसाए वोसरित्ताण समाहिं पडिवजये ॥४२॥ साम्यं मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनापि ।
आशाः व्युत्सृज्य समाधि प्रतिपद्ये ॥ ४२ ॥ अर्थ-शत्रु मित्र आदि सब प्राणियोंमें मेरी तरफसे समभाव हैं किसीसे वैर नहीं है इसलिये सब तृष्णाओंको छोड़कर मैं समाधिभावको अंगीकार करता हूं ॥ ४२ ॥
यहांपर कोई कहे कि वैरभाव कैसे नहीं है? ऐसे प्रश्नका उत्तर कहते हैं;खमामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि ॥४३॥