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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार २। १७ बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकार ॥२॥
आगे मुनिराजके छह काल होते हैं उनमेंसे आत्मसंस्कारकाल संल्लेखनाकाल उत्तमार्थकाल ये तीन काल तो आराधनामें वर्णन किये जायेंगे और शेष दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषणकाल ये तीन काल आचारमें वर्णन किये जायेंगे। इनमेंसे आदिके तीन कालमें जो मरणका अवसर आजाय तो ऐसा करना चाहिये।
सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहदो णमो। सद्दहे जिणपण्णत्तं पञ्चक्खामि य पावयं ॥ ३७॥
सर्वदुःखप्रहीनेभ्यः सिद्धेभ्यः अहट्यो नमः।
श्रद्दधे जिनप्रज्ञप्तं प्रत्याख्यामि च पापकं ॥ ३७॥ अर्थ-सब दुःखोंकर रहित सिद्ध परमेष्ठीको तथा नवलब्धियोंको प्राप्त अहंत परमेष्ठीको नमस्कार होवे, अब मैं जिनदेवकथित आगमका श्रद्धान करता हूं और दुःखके कारणभूत पापोंका प्रत्याख्यान( त्याग ) करता हूं ॥ ३७ ॥
आगे भक्तिके प्रकर्षकेलिये फिर नमस्कार करते हैं;णमोत्थु धुदपावाणं सिद्धाणं च महेसिणं । संथरं पडिवजामि जहा केवलिदेसियं ॥ ३८ ॥
नमोस्तु धुतपापेभ्यः सिद्धेभ्यः च महर्षिभ्यः ।
संस्तरं प्रतिपद्ये यथा केवलिदेशितम् ॥ ३८ ॥ अर्थ-जिन्होंने पापकर्म नष्ट करदिये ऐसे सिद्ध परमेष्ठी तथा केवल ऋद्धिको प्राप्त अहंत परमेष्ठी इन दोनोंको नमस्कार होवे,
२ मूला.