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मूलाचाररहित चार अंगुलके अंतरसे समपाद खड़े रहकर अपने चरणकी भूमि, झूठन पड़नेकी भूमि, जिमानेवालेके प्रदेशकी भूमि-ऐसी तीन भूमियोंकी शुद्धतासे आहार ग्रहण करना वह स्थितिभोजन नामा मूलगुण है ॥ ३४ ॥
आगे एकभक्तका खरूप कहते हैं;उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ॥ ३५ ॥
उदयास्तमनयोः कालयोः नालीत्रिकवर्जिते मध्ये । एकस्मिन् द्वयोः त्रिषु वा मुहूर्तकाले एकभक्तं तु ॥ ३५ ॥
अर्थ-सूर्यके उदय और अस्तकालकी तीन घड़ी छोड़कर, वा मध्यकालमें एकमुहूर्त, दो मुहूर्त, तीनमुहूर्त कालमें एकबार भोजन करना वह एकभक्त मूलगुण है ॥ ३५ ॥ __ आगे मूलगुणोंका फल वर्णन करते हैं;एवं विहाणजुत्ते मूलगुणे पालिऊण तिविहेण । होऊण जगदि पुज्जो अक्खयसोक्खं लहइ मोक्खं ३६
एवं विधानयुक्तान मूलगुणान् पालयित्वा त्रिविधेन । भूत्वा जगति पूज्यः अक्षयसौख्यं लभते मोक्षम् ॥ ३६॥
अर्थ-इसप्रकार पूर्व कहेगये विधानकर युक्त मूलगुणोंको मनवचनकायसे. जो पालता है वह तीनलोकमें पूज्य होकर अविनाशी सुखवाले कर्मरहित जीवकी अवस्थारूप मोक्षको पाता है ॥ ३६॥ इसप्रकार आचार्यश्रीवट्टकेरिविरचितमूलाचारकी भाषाटीकामें अट्ठाईसमूलगुणोंको कहनेवाला मूलगुणाधिकार समाप्त. ॥१॥