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मूलाचार
अर्थ-कपास रेशम रोम तीनके बने हुए वस्त्र, मृगछाला आदि चर्म, वृक्षादिकी छालसे उत्पन्न सन आदिके टाट, अथवा पत्ता तृण आदि-इनसे शरीरका आच्छादन नहीं करना, कड़े हार आदि आभूषणोंसे भूषित न होना, संयमके विनाशक द्रव्योंकर रहित होना-ऐसा तीनजगतकर पूज्य वस्त्रादि-बाह्यपरिग्रहरहित अचेलकवत मूलगुण है ॥ ३० ॥ इससे हिंसाका उपार्जनरूपदोष, प्रक्षालनदोष, याचनादिदोष नहीं होते ।
आगे अमानव्रतका स्वरूप कहते हैंपहाणादिवजणेण य विलित्तजल्लमल्लसदसव्वंगं । अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो ॥३१॥ स्नानादिवर्जनेन च विलिप्तजल्लमल्लखेदसर्वांगम् । अस्त्रानं घोरगुणं संयमद्विकपालकं मुनेः॥३१॥
अर्थ-जलसे नहानारूप स्नान, आदिशब्दसे उवटना, अंजन लगाना, पान खाना, चंदनादिलेपन-इसतरह नानादिक्रियाओंके छोड़देनेसे जल्लमल्लखेदरूप देहके मैलकर लिप्त होगया है सब अंग जिसमें ऐसा अस्नान नामा महान् गुण मुनिके होता है । उससे कषायनिग्रहरूप प्राणसंयम तथा इन्द्रियनिग्रहरूप इन्द्रियसंयम इन दोनोंकी रक्षा होती है। यहां कोई प्रश्न करे कि सानादि न करनेसे अशुचिपना होता है ? उसका समाधान यह है कि मुनिराज व्रतोंकर सदा पवित्र हैं, यदि व्रतरहित होके जलसानसे शुद्धता हो तो मच्छी मगर दुराचारी असंयमी सभी जीव मानकरनेसे शुद्ध माने जायँगे सो ऐसा नहीं है, प्रत्युत जलादिक बहुत दोषोंसहित हैं अनेकतरहके सूक्ष्मजीवोंसे भरे हैं पापके मूल हैं इसलिये संयमी जनोंको अमानव्रत ही पालना योग्य है ३१