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मूलगुणाधिकार १ । प्रकृतिवासनागंधे जीवाजीवात्मके सुखे असुखे । रागद्वेषाकरणं घ्राणनिरोधो मुनिवरस्य ॥ १९॥
अर्थ-खभावसे गंधरूप तथा अन्यगंधरूपद्रव्यके संस्कारसे सुगंधादिखरूप ऐसे सुख दुःखके कारणभूत जीव अजीवखरूप पुष्प चंदन आदि द्रव्योंमें रागद्वेष नहीं करना वह श्रेष्ठमुनिके प्राणनिरोधव्रत होता है ॥ १९ ॥ ___ अब रसनेंद्रियनिरोधव्रतका खरूप कहते हैं;असणादिचदुवियप्पे पंचरसे फासुगम्हि णिरवजे । इहाणिट्टाहारे दत्ते जिब्भाजओऽगिद्धी ॥२०॥
अशनादिचतुर्विकल्पे पंचरसे प्रासुके निरवये । इष्टानिष्टाहारे दत्ते जिह्वाजयोऽगृद्धिः॥ २० ॥
अर्थ-भात आदि अशन, दूध आदि पान, लाडू आदि खाद्य, इलाइची आदि खाद्य-ऐसे चार प्रकारके तथा तिक्त कटु कषाय खट्टा मीठा पांचरसरूप इष्ट अनिष्ट (अप्रिय ) प्रासुक निर्दोष आहारके दाताजनोंसे दिये जानेपर जो आकांक्षारहित परिणाम होना वह जिह्वाजयनामा व्रत है ॥ २० ॥ ___ आगे स्पर्शनइन्द्रियनिरोध व्रतका खरूप कहते हैं;जीवाजीवसमुत्थे कक्कडमउगादिअभेदजुदे । फासे सुहे य असुहे फासणिरोहो असंमोहो ॥२१॥
जीवाजीवसमुत्थे कर्कशमृदुकाद्यष्टभेदयुते । स्पर्शे सुखे वा असुखे स्पर्शनिरोधः असंमोहः ॥ २१ ॥
अर्थ-चेतनस्त्री इत्यादि जीवमें और शय्या आदि अचेतनमें उत्पन्न हुआ कठोर नरम आदि आठ प्रकारका सुखरूप