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मूलाचारअथवा दुःखरूप जो स्पर्श उसमें मूर्छित न होता अर्थात् हर्ष विषाद नहीं करना वह स्पर्शनइन्द्रियनिरोध व्रत है ॥ २१ ॥ ___ आगे साधुओंके छह आवश्यक कर्मों के नाम कहते हैं,समदा थओ य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं । पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥ २२॥
समता स्तवश्व वंदना प्रतिक्रमणं तथैव ज्ञातव्यं । प्रत्याख्यानं विसर्गः करणीया आवश्यकाः षडपि ॥२२॥
अर्थ-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा करने चाहिये ॥२२॥
आगे सामायिक आवश्यकका खरूप कहते हैंजीविदमरणे लाहालाभे संजोयविप्पओगे य । बंधुरिसुहदुक्खादिसु समदा सामायियं णाम ॥ २३ ॥
जीवितमरणयोः लाभालाभयोः संयोगविप्रयोगे च । बंध्वरिसुखदुःखादिषु समता सामायिकं नाम ॥ २३ ॥
अर्थ-देह धारनेरूप जीवन, प्राणवियोगरूप मरण-इन दोनोंमें तथा वांछित वस्तुकी प्राप्तिरूप लाभ, इच्छितवस्तुकी अप्राप्तिरूप अलाभ, इसप्रकार आहार उपकरणादिकी प्राप्ति अप्राप्तिरूप लाभ अलाभमें; इष्ट अनिष्टके संयोग वियोगमें; खजनमित्रादिकबंधु, शत्रु दुष्टादिक अरि-इन दोनोंमें; सुख दुःखमें वा भूख प्यास शीत उष्ण आदि बाधाओंमें जो रागद्वेषरहित समान परिणाम होना उसे सामायिक कहते हैं ॥ २३ ॥ ___ आगे चतुर्विंशतिस्तवका खरूप कहते हैं;-. उसहादिजिणवराणं णामणिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च । काऊण अचिदूण य तिसुद्धपणमो थओ णेओ॥२४॥