Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पयडिविहत्ती २ * 'पयडिविहत्ती दुविहा, मूलपयडिविहत्तीच उत्तरपयडिविहत्ती च।
४१. एत्थ 'च' सद्दो किम कदो ? समुच्चय । दि एवं, तो एकेणेव सरह विदिय 'च' सद्दो अवणेयव्वो फलाभावादो; ण, दव्य-पजवष्टियणयष्टियजीवाणमणुग्गही मूलपयडिविहत्ती उत्तरपयडी च, उत्तरपयडिविभत्ती मूलपयडी च इदि भण्णदे [पुणरत्तदोसाभावा दो। मूलपयडी णाम एक्का चेव पज्जवडियणयावलंवणाए मूलपयडित्ताणुववत्तीदो। तदो तत्थ पत्थि विहत्तिववएसो; भेदेण विणा तदणुववत्तीदो ति? सचमेदं जदि अहण्हं कम्माणमेयत्तं विवक्खियं, किं तु मोहणीयपयडीए एयत्तमेस्थ विवक्खियं तेण मूलपयडीए विहत्तिभावो जुञ्जदे । मोहणीयं चेव विवक्खियमिदि कुदो णबदे १ [पयडीए मोहणि ]जा त्ति एदम्हादो महाहियारादो। ण च पयडीण
* प्रकृतिविभक्ति दो प्रकारकी है-मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तर प्रकृतिविभक्ति ।
४१. शंका-चूर्णिसूत्र में 'च' शब्द किस लिये दिया है ? समाधान-समुच्चयरूप अर्थके प्रकट करनेके लिये 'च' शब्द दिया है।
शंका-यदि ऐसा है तो एक 'च' शब्दसे ही काम चल जाता है, अतः दूसरा 'च' शब्द अलग कर देना चाहिये, क्योंकि उसका कोई प्रयोजन नहीं है ?
समाधान-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयमें स्थित जीवोंके उपकारके लिये चूर्णिसूत्रमें दो 'च' शब्द दिये गये हैं। जिससे यह अर्थ निकलता है कि द्रव्यार्थिक नयमें स्थित जीवों की अपेक्षा प्रकृतिविभक्तिके मूल प्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति ये दो भेद हैं और पर्यायार्थिक नयमें स्थित जीवोंकी अपेक्षा उत्तरप्रकृतिविभक्ति और मूलप्रकृतिविभक्ति ये दो भेद हैं अतः दो 'च' शब्द देने में पुनरुक्त दोष नहीं है।
शंका-मूल प्रकृति एक ही है, और पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर मूलप्रकृति बन नहीं सकती है। अतः उसके साथ विभक्ति शब्दका व्यवहार करना ठीक नहीं है, क्योंकि भेदके बिना विभक्ति शब्दका व्यवहार नहीं बन सकता ?
समाधान-यदि यहां मूलप्रकृति पदसे आठों कर्मोंकी एक रूपसे विवक्षा की गई होती तो यह कहना ठीक होता किन्तु यहां मूलप्रकृतिके एक भेद मोहनीयकी विवक्षा है अतः मूलप्रकृदिमें विभक्तिपना बन जाता है।
शंका-यहां मोहनीय कर्म ही विवक्षित है यह कैसे जाना ? समाधान-पयडीए मोहणिज्जा' इस महाधिकारसे जाना है कि यहां मोहनीय कर्म
(१) एगेणेव 'च' सद्देण समुच्चयट्ठावगमादो विदिय 'च' सद्दो अणत्थओ त्ति णावणे, सक्किज्जदे; अप्पिदेगणयं पडुच्च परूवणाए कीरमाणाए मूलपयडिट्ठिदिविहत्ती उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्ती च उत्तरपयडिष्टिदिविहत्ती मूलपयडिट्ठिदिविहत्ती चेदि एग 'च' सदुच्चारणं मोत्तूण विदियसङ्कुच्चारणाए अभावेण पुणरुत्तदोसाभाबादो -जयप० प्रे० का० ५० ९१८ । (२)-दे (त्रु० . . . . ८)-दो -स०।-दो सुगमत्तादो-अ. (३)-व्वदे (त्रु० . . . .७) ज्जा त्ति-स० ।-वदे मोहणीए विवज्जा त्ति-अ० ।
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