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जैन संस्कृत महाकाव्य
जयशेखर ने, इस प्रकार, प्रकृति के आलम्बन तथा उद्दीपन पक्षों का कम चित्रण किया है, किन्तु उक्तिवैचित्र्य तथा मानवीकरण में उसकी काव्यकला का उदात्त रूप दृष्टिगोचर होता है। जैनकुमारसम्भव में षड्ऋतुवर्णन ही एक ऐसा प्रसंग है जो साधारणता के धरातल से ऊपर नहीं उठ सका है। इस वर्णन में बहुधा ऋतुओं के सेवीरूप को रेखांकित किया गया है। सौन्दर्यचित्रण
जैन कुमारसम्भव के फलक पर मानवसौन्दर्य के भी अभिराम चित्र अंकित किये गये हैं । जयशेखर के सौन्दर्य चित्रण में दो प्रमुख प्रवृत्तियां लक्षित होती हैं । एक ओर विविध अप्रस्तुतों के द्वारा, कविकल्पना के आधार पर वर्ण्य पात्र के विभिन्न अवयवों का सौन्दर्य निरूपित करने की चेष्टा है, दूसरी ओर नाना प्रसाधनों से सहज सौन्दर्य को वृद्धिंगत करने का प्रयत्न है। जयशेखर के सौन्दर्य चित्रण में यद्यपि परम्परागत प्रासंगिक वर्णनों से अधिक भिन्नता नहीं है परन्तु कवि की उक्तिवैचित्र्य की वृत्ति तथा साद श्यविधान की कुशलता के कारण ये वर्णन सरसता से सिक्त हैं । ऋषम के यौवनजन्य सौन्दर्य का वर्णन उपर्युक्त प्रथम कोटि का है, जिसमें यदा-कदा हेमचन्द्र के भावों की प्रतिगूंज सुनाई देती है।
ऋषभ का मुख चन्द्रमा था और चरण कमल थे। परन्तु प्रभु के पास आकर चन्द्रमा तथा कमल ने परम्परागत वैर छोड़ दिया था। वही शक्तिशाली शासक है, जिसके सान्निध्य में शत्रु भी शाश्वत विरोध भूल कर सौहार्दपूर्ण आचरण करें।
तस्याननेन्दावुपरि स्थितेऽपि पादाब्जयोः श्रीरभवन्न होना। धत्तां स एव प्रभुतामुदीते द्र ह्यन्ति यस्मिन्न मिथोऽरयोऽपि ॥ १.३६
उनके ऊरुओं का वर्णन रूपक द्वारा किया गया है। ऋषभ की जंघाओं पर तरकशों का आरोप करने से प्रतीत होता है कि कामिनियों के मानभंजन के लिये काम के पास प्रसिद्ध पाँच बाणों के अतिरिक्त अन्य तीर भी हैं।
धीरांगनाधैर्यभिदे पृषत्काः पंचेषुवीरस्य परेऽपि सन्ति ।
तदूरुतूणीरयुगं विशालवृत्तं विलोक्येति बुधैरतकि ॥ १.४२ युवा ऋषभ के विशाल वक्ष तथा पुष्ट नितम्बों के बीच कृश मध्यभाग, जैन दर्शन सम्मत त्रिलोकी के आकार का प्रतिरूप है।
उपर्युरः प्रौढमधः कटी च व्यूढान्तराभूत्तलिनं विलग्नम् ।
किं चिन्मये ऽस्मिन्ननु योजकानां त्रिलोकसंस्थाननिदर्शनाय ॥१.४५ ३७. जैनकुमारसम्भव, ६.५२-७३ ३८. तुलना कीजिए : जैनकुमारसम्भव, १.३६,४६,५५ तथा त्रिषष्टिशलाका
पुरुषचरित, १.२.७१५,७१४,७१६