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जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल
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रसनावेष्टितं तस्य कटिमण्डलमाबभौ ।
हेमवेदीपरिक्षिप्तमिव जम्बूद्रुमस्थलम् ॥ २.२२४ चरित्रचित्रण
__ जम्बूस्वामिचरित में अधिक पात्र नहीं हैं । काव्यनायक के अतिरिक्त उसकी चार पत्नियाँ, पिता अर्हद्दास, माता जिनमती तथा विद्युच्चर कथानक का तानाबाना बुनने के सहयोगी हैं । जम्बूस्वामी का चरित्र अंकित करने में कवि को अपेक्षाकृत अधिक सफलता मिली है। जम्बूस्वामी
जम्बूस्वामी मानवोचित समस्त गुणों का पुंज है । वह काम के समान रूपवान्, वज्रपाणि के समान बलवान्, मेरु की तरह धीर, सागर की भाँति गम्भीर, सूर्य-सा तेजस्वी, चाँद-सा सौम्य और कमल-सा कोमल है। काव्य में उसके इन सभी गुणों का पल्लवन नहीं हुआ है । उसके चरित्र की जिन दो विशेषताओं पर अधिक बल दिया गया है तथा जिनसे उसका समूचा व्यक्तित्व परिचालित है, वे हैं परस्परविरोधी वीरता और वैराग्य । वह बन्धन से छुटे, श्रेणिक के पर्वताकार मदमत्त हाथी को पूंछ पकड़ कर क्षण भर में दमित कर देता है जबकि अन्य बली योद्धा प्राण बचाने के लिये, कायरों की भाँति, इधर-उधर छिप जाते हैं। वज्र भी उस वीर का बाल बांका नही कर सकता, तुच्छ हाथी का तो कहना ही क्या ?
वज्रास्थिबन्धनः सोऽयं वज्रकीलश्च वज्रवत् ।
वज्रणापि न हन्येत का कथा कीटहस्तिन:॥ ६.८० _ विद्याधर रत्नचूल की सुगठित सेना को वह अकेला क्षतविक्षत कर देता है । अतिमानुषिक योद्धा जहाँ असफल हुए, मनुष्य ने वहाँ विजय पाई। द्वन्द्वयुद्ध में भी रत्नचूल को उससे मुंह की खानी पड़ती है। उसकी इस अनुपम उपलब्धि का केरलपति मृगांक तथा महाराज श्रेणिक कृतज्ञतापूर्वक अभिनन्दन करते हैं । यह उन्हीं का युद्ध था, जिसे जम्बूस्वामी ने उदारता से अपने सिर ले लिया था। किन्तु युद्ध, हिंसा आदि उसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है । विजयप्राप्ति के पश्चात् उसे, सम्राट अशोक की भाँति, आत्मग्लानि का अनुभव होता है और वह अपनी क्रूरता पर पश्चात्ताप करने लगता है । उसके इस आचरण में विरोधाभास है परन्तु यह अप्रत्याशित नहीं क्योंकि उसके व्यक्तित्व का प्रेरणाबिन्दु करुणा एवं विरक्ति है ।
जम्बूस्वामी समूचे उपलब्ध वैभवों से सर्वथा अलिप्त है। रूपवती नववधुओं के बीच वह ऐसे अविचल रहता है मानों नारी में कोई आकर्षण न हो और पुरुष में उत्तेजना न हो । पत्नियों के समस्त हाव-भाव भी उसकी दृढता के दुर्ग को नहीं भेद सके। वस्तुत:, उसकी दृष्टि में नारी विष्ठा, मूत्र, मज्जा आदि मलिनताओं के पुंज
२६. वही, ११.३-५ ३०. वही, ८.१६