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जैन संस्कृत महाकाव्य
लम्बे सागर को आसानी से पार कर लेते हैं (१३.६६) । सुर की भेरी बजाने से द्वारिका के सब रोग सहसा शान्त हो जाते हैं (१४.१०.६) ।
प्रद्युम्न चरित में रोमांचक प्रसंगों की भी कमी नहीं है । विजयार्द्ध पर्वत पर काल संवर के पुत्रों के गहित षड्यन्त्रों को विफल करने के लिए प्रद्युम्न के साहसिक तथा चमत्कारी कार्य तथा द्वारिका में प्रवेश करने से पूर्व उसके हास्यजनक करतब, काव्य में रोमांचकता के जनक हैं । अन्य पौराणिक काव्यों की तरह प्रद्युम्नचरित में रूप-परिवर्तन की लोककथा-रूढ़ि का भी प्रयोग किया गया है। प्रद्युम्न किरात का रूप बनाकर दुर्योधन की पुत्री का अपहरण करता है और वैदर्भी को पाने के लिए चाण्डाल का रूप धारण करता है। उसे मदारी, द्विज तथा बालमुनि बनने में भी संकोच नहीं है । अन्य पात्रों का रूप परिवर्तित करने में भी वह पटु है । रुक्मिणी को योगिनी का, शाम्ब को कन्या का और जाम्बवती को सत्यभामा का रूप देना उसके लिए असंभव नहीं है। कन्याहरण, जिसका प्रद्युम्नचरित में प्राचुर्य है, रोमांचक काव्य का ही तत्त्व है । अपने प्रचारवादी उद्देश्य की पूर्ति के लिए रत्नचन्द्र ने काव्य में धर्मदेशनाओं को माध्यम बनाया है। तीर्थंकर नेमिनाथ, सीमंधर, नन्दिवर्धन, विमलवाहन, महेन्द्र आदि धर्माचार्य जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की व्याख्या के प्रसंग में श्रोताओं को संसार की नश्वरता तथा भोगों की भंगुरता से अभिभूत कर वैराग्य की ओर उन्मुख करते हैं, जिसके फलस्वरूप काव्य के प्रायः समूचे पात्र अन्ततोगत्वा प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। सन्तोष यह है कि ये उपदेश विस्तृत नहीं हैं जिससे काव्य नीरसता से मुक्त है । इसका मुख्य कारण यह है कि काव्य के विस्तृत फलक पर कवि ने जीवन के विविध प्रसंगों के मनोरम चित्र अंकित किए हैं, जो पूर्वोक्त अतिप्राकृतिक तथा रोमांचक घटनाओं के साथ, पाठक को आद्यन्त अभिभूत रखते हैं। कवि-परिचय तथा रचनाकाल
प्रद्युम्नचरित के सतरहवें सर्ग की पुष्पिका तथा प्रशस्ति से रत्नचन्द्र की गुरुपरम्परा तथा कृतित्व आदि के विषय में बहुत उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है। रत्नचन्द्र के गुरु वाचक शान्तिचन्द्र तपागच्छ के प्रख्यात आचार्य आनन्दविभलसूरि की शिष्यपरम्परा में थे। मुगल सम्राट अकबर ने जब भट्टारक हीरविजय को धर्मपृच्छा के लिये फतेहपुरी बुलाया था, उस समय शांतिचन्द्र, साधु-समाज में, उनके साथ थे । उनकी साहित्यिक प्रतिभा के स्मारक दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं। कृपारसकोश उनकी मौलिक कृति है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को उन्होंने प्रमेयरत्नमज्जूषा नामक बृहद्वृत्ति से अलंकृत किया है। उन्होंने कृपारसकोश का वाचन अकबर के समक्ष किया था जिससे उन्हें यथेष्ट सम्मान प्राप्त हुआ था । मुगल सम्राट की प्रेरणा से ही शान्तिचन्द्र ५. प्रशस्ति, ८-१०