Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 486
________________ ४७१ प्रद्युम्नचरित : रत्नचन्द्रगणि साधनभूत प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं । जराकुमार से अपने अनन्य मित्र कृष्ण के निधन का समाचार पाकर पाण्डवों में वैराग्य का उदय होता है और वे द्रौपदी के साथ दीक्षा ग्रहण करके क्रमशः कैवल्य और मोक्ष प्राप्त करते हैं । घातिकर्मों का क्षय होने से प्रद्युम्न भी परम पद को प्राप्त होता है । कथावस्तु की उपर्युक्त रूपरेखा से स्पष्ट है कि काव्य में प्रद्युम्नचरित नवें सर्ग तक सीमित है । प्रथम चार सर्ग भी मुख्य कथा के साथ सूक्ष्म तन्तु से जुड़े हुए हैं । सतरहवें सर्ग में प्रद्युम्न की निर्वाण प्राप्ति के प्रसंग को छोड़कर अन्तिम आठ सर्गों का प्रद्युम्न कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है । इसका नवें सर्ग में समाहार करके वहीं काव्य को समाप्त करना कहीं अधिक स्वाभाविक होता । इससे कथानक विश्वखलित होने से बच सकता था । किन्तु कवि ने काव्य में नेमिचरित तथा कृष्णचरित का सविस्तार निरूपण करके कथानक की अन्विति को नष्ट कर दिया है । रत्नचन्द्र की दृष्टि में कथानक को अन्वितिपूर्ण बनाने की अपेक्षा जैन धर्म की उत्कृष्टता का प्रतिपादन करना अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है । प्रद्युम्नचरित में इस महत्ता का प्रदर्शन तब तक सम्भव नहीं था, जब तक नायक ही नहीं प्रत्युत काव्य के अन्य समूचे पात्र, किसी न किसी प्रकार, संसार की दुःखमयता से अभिभूत होकर प्रव्रज्या ग्रहण नहीं कर लेते । कवि के विचार में, काव्य का चरम उद्देश्य नेमिनाथ का निर्वाण प्रतीत होता है यद्यपि वह प्रमुख कथा के फलागम के प्रतिकूल है । अत: उसने काव्य के अन्त में, प्रद्युम्न की शिवत्व प्राप्ति के वर्णन से कथानक की परि उद्देश्य की पूर्ति के लिए, ति करने की चेष्टा की है । परन्तु यह प्रसंग, काव्य के अलग से चिपकाया प्रतीत होता है । वर्तमान रूप में, काव्य में, कृष्णचरित का प्राधान्य है । तर्क के लिये कृष्णचरित का मूलकथा से सम्बन्ध मान भी लिया जाये, नेमिनाथ के वृत्त के सर्वांग निरूपण का क्या औचित्य है ? स्पष्टतः रत्नचन्द्र अपने आधारस्रोत के प्रभाव से इतना अभिभूत है कि काव्य के लिये सुसम्बद्ध कथानक लेकर भी उसने, उसका नेमिचरित के अवयव के रूप में, प्रतिपादन किया है जिससे काव्य का आधिकारिक वृत्त गौण बन गया है । अत: काव्य के शीर्षक की चरितार्थता पर स्वतः प्रश्नात्मक चिह्न लग जाता है । वर्तमान रूप में, काव्य का 'कृष्णचरित' शीर्षक अधिक अर्थवान् होगा । प्रद्युम्नचरित का आधारस्रोत पौराणिक काव्यों के अन्य अधिकतर श्वेताम्बर लेखकों के समान रत्नचन्द्र गण ने अपने काव्य का कथानक आचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित से ग्रहण किया है। त्रि.श. पु. चरित में ( नवम पर्व ) प्रद्युम्न का जीवनवृत्त नेमिचरित के उपांग के रूप में वर्णित है । पुत्र होने के नाते प्रद्युम्न का चरित कृष्णचरित का अवयव है, जिसका नेमिनाथ के उदात्तचरित के अन्तर्गत विस्तारपूर्वक निरूपण किया

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