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उपसंहार
४८७ संस्कृत-महाकाव्य-परम्परा में प्रस्तुत युग के महाकाव्यों का अपना महत्त्व है। माघोत्तर अधिकतर महाकाव्यकार उनकी कविता के बाह्य एवं आभ्यन्तर रूप से इतने अभिभूत हैं कि वे कथावस्तु के अलंकरण, रूढियों के पालन तथा भाषा-शैली में माघ का अनुकरण करते रहे हैं। आलोच्य काल के कवि उस प्रबल आकर्षण से अछते तो नहीं हैं, किन्तु जयशेखर, कीतिराज, पुण्यकुशल तथा सूरचन्द्र ने कालिदास की शैली को अपना आदर्श माना है। फलतः उनके काव्यों की भाषा-शैली माघ की विकटबन्ध कृत्रिम शैली नहीं है। उसमें गरिमा तथा सरलता का हृदयावर्जक संयोग है । पुण्यकुशल के काव्य की यह विशेषता इसलिये और भी अभिनन्दनीय है कि कथावस्तु की परिकल्पना, उपस्थापन तथा निर्वाह आदि में वे माघ के ऋणी हैं । अवश्य ही काव्यरचना के प्रयोजन ने इन कवियों को अपनी कृतियों को अत्यधिक अलंकृत करने से रोका है, किन्तु संस्कृत-महाकाव्य के अन्तिम चरण में बद्धमूल परम्परा तथा उसके दुर्दमनीय आकर्षण के समक्ष आत्मसमर्पण न करना स्वयं एक उपलब्धि है । इस दृष्टि से वे कालिदास के पथ के बटोही हैं और उनकी शिष्य-परम्परा को समृद्ध बनाते हैं । इसका यह अभिप्राय नहीं कि आलोच्य युग में माघ का प्रभाव समाप्त हो गया था अथवा उनका काव्य आकर्षणशून्य बन गया था। उपर्युक्त कवियों में से ही कुछ अपने काव्यों के प्रस्तुतीकरण में माघ के पदचिह्नों पर चलते दिखायी देते हैं। परन्तु माघ के सच्चे शिष्य मेघविजयगणि हैं। देवानन्द की समस्यापूर्ति के अतिरिक्त दिग्विजय महाकाव्य के चित्रकाव्य पर भी माघ की छाप स्पष्ट है। अन्य काव्यों के कुछ अंशों पर भी माघ का प्रभाव देखा जा सकता है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि श्रीहर्ष को भी विवेच्य युग में दो अनुयायी मिले हैं। हीरसौभाग्य जैन-साहित्य का नैषध है । यदुसुन्दर नैषधचरित का लघु संस्करण प्रस्तुत करता है।
कुमारपालचरित के अतिरिक्त आलोच्य युग के अन्य ऐतिहासिक महाकाव्यों के इतिहास-तत्त्व की प्रामाणिकता निर्विवाद है। संयमधन आचार्यों के जीवनवृत्त पर आधारित काव्यों का इतिहास-पक्ष संस्कृत के प्राचीन बहुप्रशंसित ऐतिहासिक महाकाव्यों की अपेक्षा कहीं अधिक विश्वसनीय है। सर्व विजय ने सुमतिसम्भव में सुमतिसाधु के साथ-साथ माण्डू के एक नागरिक, शाह जावड़, को अपने विवरण का विषय बना कर ऐतिहासिक काव्यों की परम्परा में नूतन उद्भावना की है। अपने इतिहास-पक्ष को लगभग निर्दोष बनाये रखना इन काव्यों की बड़ी विशेषता
विवेच्य तीन शताब्दियों में जैनकुमारसम्भव, नेमिनाथमहाकाव्य तथा काव्यः मण्डन (कुछ स्थलों को छोड़कर) में काव्य के सुकुमार मार्ग का निर्वाह हुआ है। भरतबाहुबलिमहाकाव्य की अन्तरात्मा भी कालिदास की कला से प्रभावित है । हम्मीरमहाकाव्य पाठक की ऐतिहासिक तथा काव्यात्मक चेतना को समान रूप से