Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 500
________________ प्रद्युम्नचरित : रत्नचन्द्रगणि ४८५ हंसि ! माघृति कुर्यास्तवाहं हंस आगतः । न काकीसंगतो हृष्येद् हंसः कमलपत्र भुक् ॥ ३.६५ इनके अतिरिक्त प्रद्युम्नचरित्र में यमक, परिसंख्या, रूपक, यथासंख्य मालोपमा, अर्थान्तरन्यास, सहोक्ति तथा सन्देह का भी प्रयोग किया गया है । छन्द अधिकतर पौराणिक महाकाव्यों की भाँति प्रद्युम्नचरित में आद्यन्त अनुष्टुप् छन्द प्रयुक्त किया गया है । प्रत्येक सर्ग के अन्त में कवि का परिचयात्मक छन्द वसन्ततिलका में निबद्ध है । प्रथम तथा षष्ठ सर्ग में एक-एक पद्य शार्दूलविक्रीडित में है । सतरहवें सर्ग में एक पद्य द्रुतविलम्बित में रचित है । सब मिलाकर प्रद्युम्नचरित्र में चार छन्द प्रयुक्त हैं । प्रद्युम्नचरित की रचना पाठक को निवृत्तिपरक जैन धर्म की ओर प्रवृत्त करने के उद्देश्य से हुई है । रत्नचन्द्र अपने लक्ष्य की पूर्ति करते हुए काव्य-धर्मों का निर्वाह करने में सफल हुए हैं। उनका कवित्व प्रशंसनीय है । उनके काव्य की विविधता पाठक को निरन्तर आगे बढ़ने को उत्साहित करती है परन्तु उनका • उद्देश्य और दृष्टिकोण दोनों सीमित हैं ।

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