Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 488
________________ प्रद्युम्नचरित : रत्नचन्द्रगणि ४७३ होगा, जहाँ दस विपत्तियों का वर्णन किया गया है। उत्तरपुराण में यह षड्यन्त्र, प्रद्युम्न द्वारा काञ्चनमाला (कनकमाला) के गहित प्रस्ताव को ठुकराने के बाद रचा जाता है । प्रद्युम्नचरित में उदधि के हरण का प्रसंग त्रि. श. पु. चरित की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। उत्तरपुराण में प्रद्युम्न उदधि का अपहरण नहीं करता बल्कि भानुकुमार के महाभिषेक में उपस्थित लोगों का उपहास करता है। इसी प्रकार वह मथुरा के निकट कौरवों की खिल्ली उड़ाता है।६ रुक्मिणी और सत्यभामा की केश देने की शर्त, प्रद्युम्नचरित में प्रद्युम्न के लौटने का उपादान कारण है, उत्तरपुराण में उसे यह शर्त तब ज्ञात होती है जब एक नाई रुक्मिणी के केश लेने के लिये वस्तुतः वहाँ आ जाता है। प्रद्युम्न उसे गोपुर में औंधा लटका देता है। प्रद्युम्नचरित में जाम्बवती को, देवमाला के प्रभाव से, तेजस्वी पुत्र शाम्ब की प्राप्ति होती है। उत्तर पुराण में यह एक अंगूठी का चमत्कार है । गुणभद्र ने जाम्बवती के पुत्र का नाम शाम्भव दिया है । रसचित्रण प्रद्युम्नचरित विविध अनुभवों का विश्वकोश है। इसके विराट् फलक पर कवि ने कटु-मधुर, क्षुद्राक्षुद्र सभी अनुभूतियों के हृदयहारी चित्र अंकित किए हैं, जो अपनी विविधता तथा अभिरामता से पाठक को मन्त्रमुग्ध रखते हैं। इस तीव्र रसवत्ता के कारण, पौराणिक काव्य होता हुआ भी, प्रद्युम्नचरित सरसता से सिक्त है। पौराणिक रचना होने के नाते इसमें शान्त-रस की प्रधानता मानी जाएगी। इसका पर्यवसान शान्त-रस में ही हुआ है। काव्य के प्राय: समूचे पात्र जागतिक भोगों के प्रति निर्वेद से अभिभूत होकर प्रव्रज्या में शाश्वत सुख खोजते हैं। प्रव्रज्या पारलौकिक सुख की अमोघ साधिका है।८ नेमिप्रभु के धर्मोपदेश से व्याघ्र आदि हिंसक पशु भी निवृत्तिप्रधान जैन धर्म अंगीकार करते हैं। रत्नचन्द्र के साहित्यशास्त्र में शान्तरस रससम्राट है। बहुचर्चित शृंगार किंपाक के समान नीरस तथा उद्वेजना-जनक है। रसाधिराज सेवस्व शान्तं शान्तमनाश्चिरम् । किपाकसदृशं मुञ्च शृंगारं विरसं पुरः ॥१२.२४३ पर शान्त को रसराज का पद देकर भी रत्नचन्द्र काव्य में उसकी अंगिरसोचित तीव्र व्यंजना करने में सफल नहीं हुए। देशना, दीक्षाग्रहण, केवलज्ञान१५. उत्तरपुराण, ७२.७४-१२६ १६. वही, ७२.१५४-१६१ १७. वही, ७२.१७३-१७४ १८. प्रद्युम्नचरित. १७.५८ १६. व्याघ्रादयोऽपि पशवो भेजिरे धर्ममार्हतम् । वही, १७.८२

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