Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 495
________________ ४८० जैन संस्कृत महाकाव्य उसकी प्रशंसा सुनने मात्र से कामविह्वल हो जाती है (३. ७८-८०) । कृष्ण उसके हृदय में ऐसे बस गये हैं जैसे दमयन्ती का हृदय नल के प्रति अनुरक्त हो गया था (३.३५)। यह उनके रूप की मोहिनी थी कि रुक्मिणी दूत द्वारा उन्हें स्वयं आहूत करती है। राज-वर्ग की तरह उनकी अनेक पत्नियाँ हैं। काव्य में उनकी सौलह हज़ार रानियों का उल्लेख है । यह संख्या यद्यपि परम्परागत (काल्पनिक भी) है किन्तु उनका बहुपत्नीत्व निर्विवाद है। काव्य में उनमें से कोई कैकेयी के रूप में तो प्रकट नहीं होती, किन्तु रुक्मिणी के आने के पश्चात् सत्यभामा का आचरण सौतिया डाह से अनुप्राणित है । स्वयं कृष्ण सब पत्नियों के साथ समान व्यवहार करते हों, ऐसी बात भी नहीं है । रुक्मिणी के प्रति उनकी अनुरक्ति तथा सत्यभामा के प्रति उपेक्षा स्पष्ट है। __ उनके व्यक्तित्व की मुख्य विशेषता उनकी अलौकिक शक्ति तथा वीरता है। रुक्मिणी-हरण के समय वे, शिशुपाल तथा विदर्भराज की संयुक्त सेना को, केवल बलराम की सहायता से, छिन्न-भिन्न कर देते हैं। जरासन्ध जैसा पराक्रमी तथा क्रूर योद्धा भी उन्हें पराजित नहीं कर सका। उनके शौर्य, रणकौशल तथा विष्णुत्व के प्रभाव से मगधसेना देखते-देखते ध्वस्त हो गयी । लवणसागर को लांघ कर द्रौपदी को पुनः प्राप्त करना उनके लिये ही सम्भव था । पाण्डव पद्मनाभ का पराक्रम चख चुके थे । 'वीरभोग्या वसुन्धरा' की सत्यता में उन्हें पूर्ण विश्वास है । उनकी वीरता का परिचय कन्याहरण से भी मिलता है। उनकी निन्ति मान्यता है कि वीर के लिये कन्याहरण गौरव का प्रतीक है । बाण को सम्बोधित उनके ये शब्द उनके चरित्र के इस पक्ष को उजागर करते हैं । हरिर्जगाद कि वक्षि मिथ्येतद् वसुधा तथा । कन्या चोभे स्यातां बलिनः खलु हस्तगे ॥ ११.६६ परकीया भवेत्कन्या तद्हृतौ दोष एव कः । वयं च बलिनो भूत्वा हरामः कन्यका इति ॥ ११.७० समाज विशेष में, जनसाधारण के लिये कन्याहरण भले ही बल का द्योतक मान लिया जाए किन्तु श्रीकृष्ण जैसे नैतिक मूल्यों के समर्थक के लिये यह कुकृत्य कदापि शोभनीय नहीं है। - यह आश्चर्य की बात है कि उन जैसा वीर भी भावी की अटलता के समक्ष नतमस्तक है । नेमिनाथ से द्वारिका के विनाश तथा अपने निधन की भविष्यवाणी सुन कर वे, सामान्य व्यक्ति की भाँति, सब कुछ भवितव्यता पर छोड़ देते हैं । यदुकुल के अग्रणी होते हुए भी वे यादवों को मद्यपान के व्यसन से विरत नहीं कर सके जिससे द्वारिका जल कर खाक हो गयी। भवितव्यता के प्रति अडिग आस्था के कारण वे, २५. भवितव्यं भवत्येव नाऽन्यथा तद्भवेत् क्वचित् । वही, १६.१५४

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