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प्रधुम्नचरित : रत्नचन्द्रगणि
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पांचजन्य की ध्वनि तथा धनुष की टंकार ही पद्मनाभ की सेना को विक्षत करने के लिये पर्याप्त है । और स्त्री के भेस में उपस्थित उसे अभयदान देकर वे, अस्त्र के बिना ही, युद्ध जीत लेते हैं (१३.१०३-१०४) ।
प्रद्युम्नचरित के इन युद्धवर्णनों में विरोधी योद्धाओं की आत्मश्लाघा तथा परनिन्दा की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है । अर्जुन और कर्ण के युद्ध में यह गालीगलौच अधिक प्रबल है।
कुत्रासि रे किरीटिंस्त्वं मा याहि रणभूमितः। आगतोऽस्मि तव द्वेषी कर्णोऽहं कालपृष्ठभृत् ॥ १०.११२ अन्यच्च शृणु राधेय रे रे कर्ण सुदुर्मते।।
जीवन्नपि हि मां किं त्वं न पश्यसि पुरःस्थितम् ॥ १०.११४ इन घनघोर युद्धो का वर्णन करने पर भी कवि की अन्तर्वृत्ति युद्ध में नहीं रमती । वह शीघ्र ही युद्ध की हिंसा के प्रति विद्रोह कर उठती है। युद्धों का विस्तृत निरूपण करने वाले कवि की यह उक्ति हास्यजनक हो सकती है, किन्तु यह उसकी मूल अहिंसावादी प्रतिबद्धता के सर्वथा अनुरूप है।
विचार्येति प्रभुः प्रोचे कृतं युद्धस्य वार्तया ।
पुष्पेणापि न साक्षि स्यान्नीतिशास्त्रं यतोऽस्य हि ॥ १२.२३ रत्नचन्द्र ने शृंगार के जिस किंपाक को छोड़ने का आह्वान किया है (१२.२४३), वे स्वयं उसकी मोहिनी से नहीं बच सके । काव्य में यद्यपि शृंगार के पल्लवन के कई अवसर हैं किन्तु उसकी तीव्र व्यंजना करना सम्भवतः कवि को रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। कृष्ण तथा यदुनारियों की जलक्रीड़ा के वर्णन में शृंगार की अपेक्षाकृत सफल अभिव्यक्ति हुई है । कृष्ण किसी नारी पर जल उछाल रहे थे । जल के वेग से उसकी आँखें बन्द थीं। तभी उसका अधोवस्त्र गिर गया किन्तु उसे इसका आभास भी नहीं हुआ।
कापि कृष्णजलाच्छोटात् पतन्मध्याम्बरा सती।
दिगम्बरं स्म जानाति नात्मानं नेत्रमीलनात् । १२.७५ रुक्मिणी के पूर्वराग की वेदना अधिक हृदयस्पर्शी है। विरहव्यथा के कारण उसकी नींद रूठ गयी है, भोजन में उसे रुचि नहीं रही, चाँदनी अंगीठी बन गयी है और शारीरिक ताप से चन्दन तत्काल सूख जाता है।
अन्नं न रोचते तस्या न विरहानलपीडनात् । निद्रापि तस्या रुष्टेव सखी कुत्राप्यगात् प्रभो ॥ ३.७८ चन्द्रज्योत्स्नां तु शीतां सा हसतीमिव मन्यते ।
श्रीखण्डस्य रसस्तस्या लगन्नेव च शुष्यति ॥३.७६ अद्भुत", हास्य तथा करुण रस भी, आनुषंगिक रुप में, प्रद्युम्नचरित की २३. वही, १२.६-११