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जैन संस्कृत महाकाव्य
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आवश्यक मानी गयी हैं, प्रद्युम्नचरित में उनमें से कुछ का निर्वाह हुआ है । प्रथम सर्ग में सत्यभामा द्वारा नारद का अपमान करने से लेकर, उसका प्रतिकार करने के लिये नारद द्वारा कृष्ण तथा रुक्मिणी को परस्पर अनुरक्त करने, कृष्ण द्वारा रुक्मिणी के हरण तथा पंचम सर्ग में प्रद्युम्न के जन्म-वर्णन तक मुख सन्धि है, क्योंकि काव्य के इस भाग में कथावस्तु का बीज अन्तर्निहित है । इसी सर्ग में धूमकेतु द्वारा शिशु प्रद्युम्न को छलपूर्वक हरकर वैताढ्य पर्वत पर असहाय छोड़ने, नारद के उसकी स्थिति ज्ञात करने तथा अनेक विजयों और अतिमानवीय कार्यों के बाद, सर्ग में प्रद्युम्न के अपने माता-पिता से मिलने के वर्णन में बीज का लक्ष्यालक्ष्य रूप में विकास होने से प्रतिमुख- सन्धि का निर्वाह हुआ है । सतरहवें सर्ग में प्रद्युम्न केवलज्ञान तथा मोक्ष प्राप्त करता है, जो इस काव्य का फलागम है । यहाँ निर्वहण - सन्धि है । गर्भ तथा विमर्श सन्धियों का प्रद्युम्नचरित में अस्तित्व खोजना दुष्कर है।
पौराणिक काव्य होने के नाते प्रद्युम्नचरित में शान्तरस की प्रधानता अपेक्षित है । इसका पर्यवसान शान्तरस में हुआ भी है । काव्य के प्रायः सभी पात्र अन्ततः संयम ग्रहण करते हैं । परन्तु प्रद्युम्नचरित में शान्त का अंगी रस के रूप में परिपाक नहीं हुआ है । इसकी तुलना में वीर रस की काव्य में तीव्र तथा व्यापक अभिव्यक्ति हुई है और यदि इसे प्रद्युम्नचरित का मुख्य रस माना जाए तो अनुचित न होगा । केवल काव्य के लक्ष्य तथा फलागम के आग्रह के कारण शान्त रस को इसका अंगी रस माना जा सकता है । इनके अतिरिक्त काव्य में प्रायः सभी प्रमुख रसों की इतनी तीव्र व्यंजना है कि रस की दृष्टि से प्रद्युम्नचरित उच्च पद का अधिकारी है । रत्नचन्द्र का काव्य चरित्रों की विशाल चित्रशाला है । यद्यपि काव्य के समस्त पात्रों को पौराणिक परिवेश तथा वातावरण में चित्रित किया गया है तथापि उनका निजी व्यक्तित्व है, जो आकर्षण से शून्य नहीं है । प्रद्युम्नचरित में जलकेलि, दूत - प्रेषण, युद्ध, विवाह, ऋतु, नगर, पर्वत तथा कौतुकपूर्ण चमत्कारजनक कृत्यों के रोचक वर्णन हैं । ये वर्णन काव्य की विषय- समृद्धि तथा विविधता के आधारस्तम्भ हैं । . इस प्रकार सन्धिविकृति को छोड़कर प्रद्युम्नचरित में महाकाव्य के समूचे परम्परागत तत्त्व विद्यमान हैं, जो इसकी सफलता के निश्चित प्रमाण हैं ।
प्रद्युम्नचरित की पौराणिकता
प्रद्युम्नचरित पौराणिक शैली का महाकाव्य है । इसमें पौराणिक काव्यों के स्वरूपविधायक तत्त्वों की भरमार है । रत्नचन्द्र ने भवान्तरों के वर्णनों के व्याज से कर्मसिद्धान्त की अटलता की व्याख्या करने का घनघोर उद्योग किया है । काव्य में जन्म-जन्मान्तरों के अन्तहीन वर्णनों का यही कारण है । मनुष्य के कर्म क्षण भर भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। उनका फल जीव को अनिवार्यतः भोगना पड़ता
३. न मुंचन्त्यः क्षणाद् दूरं जीवं कि कर्मराशयः । प्रद्युम्नचरित, १२.८२