Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 482
________________ प्रद्युम्नचरित रत्नचन्द्रगणि ४६७ है । वेदज्ञ अग्निभूति तथा वायुभूति, पूर्वजन्म में मांसभक्षी शृगालों के रूप में, चर्मरज्जु खाने के कारण इस जन्म में ईर्ष्यालु ब्राह्मण बनते हैं और मुनि नन्दिवर्धन की खिल्ली उड़ाने का प्रयास करते हैं। उनका पिता सोमदेव तथा माता अग्निला भवान्तर में व्यभिचार के कारण, नाना अधम योनियों में घूम कर भी, क्रमशः चाण्डाल तथा कुत्ती के रूप में पैदा होते हैं । हस्तिनापुर के अहंदास के पुत्रों, पूर्णभद्र तथा मणिभद्र, (पूर्वजन्म के अग्निभूति और वायुभूति) को पूर्वभव के इस सम्बन्ध के कारण ही चाण्डाल और कुत्ती के प्रति सहसा स्नेह का अनुभव होता है । कालान्तर में पूर्णभद्र विष्वक्सेन का पुत्र मधु बनता है। वटपुर के राजा कनकप्रभ की रूपवती पत्नी चन्द्राभा का अपहरण करके मधु उससे जो बैर मोल लेता है, वह भी जन्मान्तर में उसका पीछा करता है । यही मधु, वर्तमान भव में, रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में उत्पन्न होता है। कनकप्रभ धूमकेतु बनता है। पूर्ववैर के कारण धूमकेतु ने नवजात प्रद्युम्न का अपहरण किया है। पूर्वजन्म में सोमदेव की पत्नी लक्ष्मी, मुनि का अपमान करने के कारण गर्दभी, शूकरी आदि हीन योनियों में दुःख भोगती है। किन्तु अन्य ज म में ऋषि समाधिगुप्त की सहायता करने के फलस्वरूप वह श्राविका और अन्ततः वृष्ण की पत्नी रुक्मिणी बनती है । लक्ष्मी के रूप में एक मयूरी को उसके शिशु से सौलह मास तक वियुक्त रखने के कारण रुक्मिणी को सौलह वर्ष तक पुत्र वियोग की वेदना सहनी पड़ती है । पूर्व जन्म में सपत्नी के सात रत्न चुराने के पाप का फल भोगती हुई देवकी को, वर्तमान भव में, सात पुत्रों को जन्म देकर एक भी पत्र के लालन-पालन का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। पौराणिक काव्यों की प्रकृति के अनुरूप प्रद्युम्नचरित में अलौकिक तथा अतिमानवीय घटनाओं का प्राचुर्य है । देवर्षि नारद, जो महाकाव्य में अतीव महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं, स्वयं अलौकिक पात्र हैं। वे द्वीपान्तरों तथा अगम्य पर्वतों पर इस सहजता से पर्यटन करते हैं जैसे पृथ्वी पर विचरण कर रहे हों । प्रद्युम्न के अतिप्राकृतिक कार्यों से तो काव्य भरा पड़ा है। उसकी शक्ति असीम तथा अलौकिक है । वह बल-प्रदर्शन की भावना से आरब्ध युद्ध में कृष्ण को भी पराजित कर देता है (८.३१७)। उसके कार्यकलाप में प्रज्ञप्तिविद्या की महत्त्वपूर्ण भूमिका है । वह कुण्डिननगर में, रात्रि के समय, वैदर्भी के आवासगृह में जाकर विद्याबल से समस्त विवाह-सामग्री जुटाता है और, प्रच्छन्न रूप में, उससे विवाह करता है। इसी विद्याबल से वह जाम्बवती को सत्यभामा का रूप देकर कृष्ण के शयनगृह में भेजता है। सागर तथा कनकमेला के विवाह का कारण भी प्रज्ञप्ति है । द्विज के रूप में वह सत्यभामा की कुब्जा दासी के सिर का स्पर्श करने मात्र से उसकी कुब्जता दूर कर देता है। उषा अनुरूप वर की प्राप्ति के लिए गौरी की पूजा करती है। उसका पिता बाण शंकर की आराधना से अजेयता का वरदान प्राप्त करता है । कृष्ण और पाण्डव लवणसागर के अधिष्ठाता देव, सुस्थित की सहायता से उस दो लाख योजन ४. तुलना कीजिए-कम्मसच्चा हु पाणिणो : उत्तराध्ययनसूत्र, ७.२०

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