Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 474
________________ जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल ४५६ के चावल थे । श्यामाक और नीवार सम्भवतः स्वयम्भू जंगली चावल थे। गेहूँ के समान जौ का आटा भी प्रयोग में लाया जाता था। दालों में मसूर, मूग, माष तथा राजमाष का प्रचलन था। चने का प्रयोग आटे और दाल दोनों रूपों में किया जाता होगा । धनिया और जीरा मसाले में प्रयुक्त किये जाते थे । अन्य खाद्य पदार्थों में कंगु, कोद्रव, उदार, वरक, तिल, अलसी, सर्षप (सरसों), आढकी, निष्पाव, कुलत्थ त्रिपुट, कुसुम्भ का उल्लेख है । कपास की खेती भी की जाती थी। सरसों, तिल तथा अलसी का तेल निकाला जाता होगा। व्याधि से शरीर में धातुओं का विपर्यय स्वाभाविक है । खांसी जैसे सामान्य विकार से लेकर क्षय, जलोदर, भगंदर तथा श्वास जैसे भयंकर रोगों तक का उल्लेख राजमल्ल ने किया है। शरीर में वायु के आधिक्य से जोड़ों में असह्य वेदना होती थी। आत्महत्या से शरीरान्त करने की परम्परा शायद उतनी ही पुरानी है जितना मानव ! राजमल्ल के समकालीन समाज में असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति को जब नीरोग होने की आशा छूट जाती थी, वह जीते जी चिता में प्राण होम कर देता था । आर्सवसु कोढ से जर्जर हो जाने पर चिता में जल कर मर गया था। ऐसी स्थिति में नारी पति के साथ सती हो जाती है ।३६ द्यूत का व्यसन ऋग्वेद-काल से ही भारतीय समाज के साथ जुड़ा हुआ है । राजमल्ल ने अपने काव्य में जुआरी की दुर्दशा का रोचक चित्र खींचा है। जुए में हारी गयी राशि को न चुकाने वाले की हत्या तक कर दी जाती थी। जिनदास पर विजयी जुआरी ने तलवार का प्रहार किया था । जुआरियों की आपसी मारपीट तो सामान्य बात थी। व्यापक प्रचलन के बावजूद द्यूत को सदैव समाज-विरोधी माना जाता था। पुलिस जुआरियों को दण्ड देकर इस व्यसन को मिटाने का प्रयत्न करती थी।३७ दर्शन जम्बूस्वामिचरित में जैन-दर्शन के मूलाधार सात तत्त्वों का निरूपण किया गया है। इनमें से आश्रव, संवर तथा निर्जरा का तेरहवें सर्ग में अनुप्रेक्षाओं के अन्तर्गत भी सविस्तार विवेचन हुआ है । गुण तथा पर्यय से युक्त द्रव्य है । इस दृष्टि से जीव द्रव्य है। उसके योग के कारण पुद्गल को भी द्रव्य माना गया है । प्रदेशप्रचय के अभाव के कारण काल की काया नहीं है। धर्म, अधर्म, आकाश तथा ३४. वही, २.६०-६२ ३५. वही, ५.८-६. ३६. वही, ३.६०-६१. ३७. वही, ५.७०-७५, ८३; तुलना कीजिए : न जानीमो नयता बद्धमेतम्-ऋग्वेद, १०.३४.४

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