Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 476
________________ जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल निर्जरा है । आत्मा के शुद्धभाव से तथा तप के अतिशय से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय द्रव्य-निर्जरा है । सविपाक तथा अविपाक ये निर्जरा के दो अन्य भेद हैं । २ अशुद्ध अवस्था त्यागकर शुद्धावस्था ग्रहण करना मोक्ष है । यह समस्त कर्मों का क्षय होने पर प्राप्त होती है । मोक्ष में ज्ञान, आनन्द आदि का आविर्भाव होता है। जैन दर्शन के इन आधारभूत तत्त्वों के विस्तृत निरूपण के अतिरिक्त जम्बूस्वामिचरित में वेदान्तियों के अद्वैतवाद तथा बौद्धों के क्षणिकवाद की उपहासपूर्वक चर्चा हुई है। कापालिकों की इस मान्यता का भी काव्य में उल्लेख किया गया है कि पंच भूतात्मक शरीर के अतिरिक्त जीव, बंध तथा मोक्ष कुछ नहीं है। उनके हंस, परमहंस, दण्डधारी आदि साधुओं की खिल्ली उड़ाई गयी है।४४ धर्म ___ दर्शन का व्यावहारिक पक्ष धर्म है। राजमल्ल के अनुसार धर्म का मूल सम्यक्त्व है। निश्चय और व्यवहार के भेद से धर्म दो प्रकार का है। निश्चय-धर्म आत्मा पर आश्रित है, व्यवहार धर्म पराश्रित है । आत्मा चैतन्य-रूप तथा अनुभूतिगम्य होने से निश्चय-धर्म पारमार्थिक धर्म है । वह आन्तरिक ऋद्धि, शुद्ध, परम तप, सम्यक् ज्ञान, दर्शन तथा चरित्र और शाश्वत सुख है। व्यवहार-दृष्टि से धर्म का मर्म संयम, दया, तप तथा शील में निहित है । आश्रम भेद से वह गृहस्थ धर्म तथा श्रमण धर्म दो भागों में विभक्त है । सम्यक् ज्ञान, दर्शन तथा चरित्र के रूप में वह त्रिविध है । लक्षणों के अनुसार उसके दस प्रकार हैं। क्षमा, मृदुता, ऋजुता, सत्य, शुचिता, संयम, तप, त्याग, अकिंचनता तथा ब्रह्मचर्य-ये धर्म के लक्षण हैं। धर्म इहलोक तथा परलोक दोनों में सदा हितसाधक है । जम्बूस्वामिचरित में मुनि के बारह व्रतों का उल्लेख हुआ है । इनमें अनशन, अवमौदर्य. वृत्तिसंख्यान, रसत्याग, विविक्त शयनासन तथा कायक्लेश बाह्य व्रत है। प्रायश्चित्त, परमेष्ठियों के प्रति विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा अनुत्तरध्यान आभ्यन्तर तप हैं । भाषा जम्बूस्वामिचरित की रचना धर्मप्रचार तथा पुण्यार्जन के लिये हुई है । अत: इस कोटि के अन्य महाकाव्यों की भाँति, जम्बूस्वामिचरित में भाषात्मक प्रौढता अथवा सौन्दर्य की आशा करना व्यर्थ है । कथानक का स्वरूप इनके लिये अधिक ४२. वही, १३.१२२-१३२ ४३. वही, ३.६० ४४. वही, २.११२-११५, १२०-१२१ ४५. वही, १ १००-११,१३.१५३-१६१ ४६. वही, १२.६१-१०३

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