Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 475
________________ ४६० जैन संस्कृत महाकाव्य पुद्गल चारों अस्तिकाय हैं । जीवादि तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। उनके प्रति श्रद्धा सम्यक् दर्शन की जननी है। कर्म के हेतुभूत भावों के निरोध को सम्यक चारित्र कहा गया है। सम्यग्दर्शन का स्थान सर्वोपरि है । ये तीनों समन्वित रूप में मोक्ष के दायक हैं । जीव अनादि, अनन्त, स्वयंसिद्ध, असंख्यातदर्शी तथा अनन्त गुणवान् है । चैतन्य उसका लक्षण है । जीव स्वदेह-परिमाण, ज्ञाता, द्रष्टा तथा कर्मों का कर्ता और भोक्ता है । कर्मों से मुक्त होने पर ऊर्ध्वगमन उसका स्वभाव है। प्राणी, जन्तु क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान् , अन्तरात्मा, ज्ञ तथा ज्ञानी उसके पर्यय हैं। जीव तीन प्रकार का है –भव्य, अभव्य और मुक्त । भविष्य में सिद्धि प्राप्त करने वाला जीव भव्य है । अभव्य वह है जिसे भविष्य में भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती । कर्मबन्धन से मुक्त, निर्मल, सुखमय तथा त्रिलोकी के शिखर पर स्थित जीव मुक्त अथवा सिद्ध है । अजीव जीव का विपरीत है। उसका लक्षण भी धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा पुद्गल की दृष्टि से किया जाता है। इनमें पुद्गल साकार है, शेष चार आकाररहित । स्कन्ध और अणु पुद्गल के दो भेद हैं । स्निग्ध, रूक्षात्मक अणुओं का संघात स्कन्ध कहा जाता है। द्वयणु से लेकर महास्कन्ध तक उसका विस्तार है। छाया, आतप, अन्धकार, ज्योत्स्ना, मेघ आदि उसके भेद हैं । कर्मों के आगमन का मार्ग आस्रव है । वह दो प्रकार का है- भावाश्रव और द्रव्याश्रव । भावाश्रव के चार भेद हैं-मिथ्यात्व, कषाय, योग तथा अविरति । तत्त्वार्थ के प्रति अश्रद्धा अथवा मिथ्या श्रद्धा मिथ्यात्व है। कषाय मोहनीय कर्मों के उदय से उत्पन्न होते हैं। वे संख्या में पच्चीस हैं । कर्माश्रव के कर्ता होने के नाते वे महान् विपत्तिदायक हैं। अविरति का अन्तर्भाव कषायों में हो जाता है यद्यपि उसका पृथक् निरूपण भी किया जाता है । पांच इंद्रियों तया छठे मन के अनिग्रह को अविरति कहा गया है। आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्द योग है। मन, वाक्, काया रूप वर्गणाओं के विपाक की दृष्टि से वह तीन प्रकार का है । बन्ध आश्रव का फल है। वह भी भावबन्ध तथा द्रव्यबन्ध के भेद से दो प्रकार का है। आश्रवों का निरोध संवर है। आश्रव की तरह उसके भी दो भेद हैं---भाव-संवर तथा द्रव्य-संवर। जितने अंश से कषायों का निग्रह हो, वही भावसंवर का क्षेत्र है। कर्मणाओं का रोध द्रव्यसंवर है। उक्त भेद से निर्जरा भी दो प्रकार की है । आत्मा के शुद्धभाव से कर्म का वेगपूर्वक विगलित होना भाव ३८. वही ३.११-१६ ३६. वही, ३.२३-३१ ४०. वही, ३.३३-५२ ४१. वही, १३.१००-१२१

Loading...

Page Navigation
1 ... 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510