Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 470
________________ जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल ४५५ है । पावस में मेघमाला गम्भीर गर्जन करती हुई आकाश में घूमती है, शीतल पवन चलती है, मयूरों तथा चातकों का मधुर शब्द बरबस हृदय को हर लेता है और वर्षा की अविराम बौछारें पृथ्वी का सन्ताप दूर करती हैं। वर्षाकाल के इन उपकरणों का प्रस्तुत पंक्तियों में स्वाभाविक चित्रण हुआ है। विद्युद्वन्तो महाध्वाना वर्षन्तो रेजिरे घनाः। सहेमकक्षा मदिनो नागा इव सबंहिताः ॥ २.४७ ववौ च वाततान्कुर्वन् कलापौधान् कलापिनाम् । घनाघनालिमुक्ताम्भःकणवाही समीरणः ॥ २.४६ चातका मधुरं रेणुरभिनन्द्य घनागमम् । अकस्मात्ताण्डवारम्भमातेने शिखिनां कुलम् ॥ २.५० तदा जलधरोन्मुक्ता मुक्ताफलरुचश्छटाः । महीं निर्वापयामासुदिवकरकरोष्मतः ॥ २.५५ राजमल्ल ने प्रकृति पर मानवीय चेष्टाओं तथा कार्यों का भी आरोपण किया है जिससे उसके तथा मानव के बीच अभिन्न साहचर्य स्थापित हो गया है । वसन्त तथा वर्षा दोनों ऋतुओं के वर्णन में प्रकृति का मानवीकरण किया गया है, यद्यपि इस ओर कवि की अधिक रुचि नहीं है। वर्षाकाल में दमकती बिजली, नर्तकी की भाँति, आकाश की रंगभूमि में, हाव-भाव दिखला कर, विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करती हुई, अपने अंग-लावण्य से सबको मोहित कर लेती है। विद्युन्नटी नभोरंगे विचित्राकारधारिणी। प्रतिक्षणविवृत्तांगी नृत्यारम्भमिवातनोत् ॥ २.५३ वसन्त के प्रस्तुत वर्णन में ऋतुराज को वैभवशाली सम्राट के रूप में अंकित किया गया है, जो कमल का छत्र धारण करके तथा फूलों की यशोमाला पहिन कर वनांगन में प्रवेश करता है। आतपत्रं दधानोऽसौ प्रफुल्लेन्दीवरच्छलात् । प्रसूनः स्वयशोमालां न्यधान्मूधिन स माधवः ॥ ६.४७ संस्कृत काव्य की प्रकृति-चित्रण की तत्कालीन परिपाटी आलंकारिक वर्णन की प्रणाली थी। राजमल्ल का वसन्त-वर्णन प्रौढोक्ति पर ही आधारित है । ऋतुराज के विविध उपकरणों के चित्रण में कविकल्पना अधिकतर उत्प्रेक्षा के रूप में प्रकट हुई है। इससे यह वर्णन, एक ओर, कल्पनाशीलता से द्योतित है और दूसरी ओर, इसकी प्रेषणीयता में वृद्धि हुई है। वसन्त में चम्पक वृक्षों से युक्त अशोक के पेड़ ऐसे लगते हैं मानों वियोगियों के विदीर्ण हृदयों के मांसपिण्ड हों। और टेसू के फूल विरही जनों को जलाने वाली चिताएँ प्रतीत होती हैं। यत्राशोकतरू रेजे युतश्चम्पकवृक्षकैः । स्फुटितस्य हृदो मांसपिण्डो नूनं वियोगिनाम् ॥ ६.५२

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