Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 471
________________ ४५६ जैन संस्कृत महाकाव्य रेजुः किशुकपुष्पाणि यत्रारक्तच्छवीनि च । दग्धुं हृद्विरहार्तानां चिता: प्रज्वलिता इव ।। ६.५३ काव्य की कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जो प्रकृति के आदर्श रूप की सृष्टि करती हैं। वर्द्धमान जिन के समवसरण तथा काव्यनायक के जन्म के अवसर पर प्रकृति का यह रूप दृष्टिगम्य होता है । जिनेन्द्र के प्रभाव से पशु-पक्षी अपना चिरन्तन वैर छोड़कर सौहार्दपूर्ण आचरण करते हैं और अन्तिम केवली के जन्म के समय स्वर्ग में दुन्दुभिनाद होता है, त्रिविध बयार चलने लगती है और दिशाएँ जयघोष से गुंजित हो उठती हैं । नेदुर्दुन्दुभयः स्वर्गे पुष्पवृष्टिरभूत्तदा । द वुर्वाताः सुशीताश्च सुगंधा पुष्परेणुभिः ।। ५.१२६ सर्वत्रापि चतुर्दिक्षु जयकार महाध्वनिः । श्रूयते परमानन्दकारणं करणप्रियः ।। ५.१२७ सौन्दर्यचित्रण राजमल्ल की सौन्दर्यान्वेषी दृष्टि के लिए प्रकृति-सौन्दर्य के समान मानवसौन्दर्य भी आकर्षक तथा ग्राह्य है । काव्य में यद्यपि केवल मगधराज श्रेणिक के शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन हुआ है किन्तु जिस तत्परता से कवि ने उसे अंकित किया है, उससे सौन्दर्य-चित्रण में उसकी दक्षता का परिचय मिलता है । संस्कृत - काव्य की चिर प्रतिष्ठित नखशिखविधि को छोड़कर किसी अभिनव मार्ग की उद्भावना करना तो सम्भव नहीं था किन्तु राजमल्ल ने अपने काव्य- कौशल से सौन्दर्य-चित्रण को सरस तथा कल्पना पूर्ण बनाने का भरसक प्रयत्न किया है। श्रेणिक के विभिन्न अवयवों के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति में प्रेषणीयता लाने के लिये उसने अलंकारों (उपमा और उत्प्रेक्षा) की विवेकसम्मत योजना की है। मगधराज के काले घुंघराले बाल ऐसे प्रतीत होते थे मानों वे कामरूपी कृष्ण सर्प के शिशु हों । विशाल वक्ष पर चन्दन का लेप मेरु की तलहटी में छिटकी शरत्कालीन चाँदनी के समान था । उसकी गम्भीर नाभि ऐसी लगती भी मानों सुन्दरियों की दृष्टि रूपी लिये काम ने पानी की खाई बनायी हो। और करधनी से वेष्टित कटि स्वर्णिम वेदिका से घिरे जामुन के पेड़ के समान प्रतीत होती थी । हथिनी को फांसने के शिरस्यस्य बभुर्नीला मूर्द्धजाः कुंचितायताः । कामकृष्णभुजंगस्य शिशवो तु विजृम्भिताः ।। २.२१६ वक्षःस्थलेन पृथुना सोऽधाच्चंदन चचिताम् । मेरोनिजतटालग्नां शारदीमिव चन्द्रिकाम् ।। २.२२१ सरिदावर्त्तगम्भीरा नाभिर्मध्येऽस्य निर्बभौ । नारीदृक्करिणीरोधे वारिखातेव हृद्भुवा ।। २.२२३

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