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जन संस्कृत महाकाव्य
दिन आदि का उल्लेख था। यह सोचकर कि यह अपनी सुमति से कल्याण-साधन करेगा तथा उत्तम साधु बनेगा, गुरु ने उसका नाम सुमतिसाधु रखा। उसने शीघ्र ही हैमव्याकरण, तर्क, उपनिषद्, सिद्धान्त, ज्योतिष तथा साहित्य में सिद्धहस्तता प्राप्त कर ली। शास्त्रार्थ तथा. काव्यरचना में भी उसकी प्रशंसनीय गति थी। स्मरपराजय नामक पंचम सर्ग में काम तथा संयमधन साधु के प्रतीकात्मक युद्ध तथा काम के वध का अतीव रोचक वर्णन है । छठे सर्ग के पूर्वार्ध में पूर्वाचार्यों की पट्ट-परम्परा का वर्णन है। उत्तरार्ध में ईडर के शासक भानु के अनुरोध से गुरु लक्ष्मीसागर सुमतिसाधु को सूरिपद पर अभिषिक्त करते हैं। अन्तिम दो सर्ग संघपति जावड़ का इतिहास प्रस्तुत करते हैं । इन सर्गों में उसके सामाजिक गौरव तथा धर्मनिष्ठा का सूक्ष्म वर्णन है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि काव्य में सुमतिसाधु के जीवन की कतिपय घटनाओं का ही दिग्दर्शन कराया गया है। काव्य के लुप्त भाग में भी उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं रही होगी। कवि अधिकतर विषयान्तरों में उलझा रहा है। अन्तिम दो सर्ग तो पूर्णत: जावड़ की धार्मिक गतिविधियों का निरूपण करते हैं, यद्यपि उनके पीछे भी आचार्य की सत्प्रेरणा निहित है। अन्य सर्गों में भी देश, नगर, चन्द्रोदय, प्रभात, युद्ध आदि के प्रासंगिक-अप्रासंगिक वर्णनों की भरमार है। वास्तविकता तो यह है कि सुमतिसम्भव काव्यनायक की अपेक्षा जावड़ के इतिहास का स्रोत है। रसयोजना
सुमतिसम्भव में यद्यपि जैनाचार्य का वृत्त काव्य का आकर्षक परिधान पहन कर आया है, किन्तु उसमें मनोभावों के विश्लेषण अथवा निरूपण के लिये स्थान नहीं है। इसीलिये इसमें किसी भी रस का यथेष्ट पल्लवन नहीं हो सका है । महाकाव्योचित तीव्र रसव्यंजना की आकांक्षा करना तो यहाँ निरर्थक होगा। काव्य की मूल प्रकृति तथा इस कोटि के अन्य जैन काव्यों की परम्परा के अनुसार इसमें शान्तरस का प्राधान्य अपेक्षित था किन्तु कवि ने उसका स्मरण मात्र करके सन्तोष कर लिया है-रसोऽथ शान्तः (४.४२)। काव्य में इसकी क्षीण आभा भी दिखाई नहीं देती। रसार्द्रता का यह अभाव सुमतिसम्भव की गरिमा को आहत करता
पंचम सर्ग में, रतिपति काम तथा सुमतिसाधु के प्रतीकात्मक युद्ध में वीररस का पल्लवन माना जा सकता है, यद्यपि इस युद्ध की परिणति वैरशोधन में नहीं अपितु निर्वेद में होती है । इसका कारण वीतराग साधु की जितेन्द्रियता है । फिर भी यहाँ सामान्यत: वीर रस का उद्रेक मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए । कवि ने इस संघर्ष को ठेठ संग्राम का रूप देने की चेष्टा की है । विश्वविजेता काम संयमी साधु को