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विजयप्रशस्तिमहाकाव्य : हेमविजयगणि
३५७ का शव आलम्बन विभाव है । अर्थी उठाना, चिता बनाना तथा गुरु की अन्त्येष्टि करना उद्दीपन विभाव हैं । श्रावकों का आँसू बहाना तथा पग-पग पर मूच्छित होना अनुभाव हैं । विषाद, जड़ता, चिन्ता आदि व्यभिचारी भाव हैं। इनके घात-प्रतिघात से स्थायी भाव शोक, करुण रस में परिणत हुआ है। सौन्दर्यवर्णन
विजयप्रशस्ति के विस्तृत फलक पर प्राकृतिक सौन्दर्य की एक रेखा भी अंकित नहीं, यह बहुत आश्चर्य की बात है। प्रकृति से गृहीत अप्रस्तुतों के द्वारा कवि ने इस अभाव की पूर्ति करने का कुछ प्रयास किया है, यद्यपि उन्हें प्रकृतिचित्रण का स्थानापन्न नहीं माना जा सकता। हेमविजय ने मानव-सौन्दर्य के अंकन में अधिक रुचि ली है । यह उसके सौन्दर्यबोध का परिचायक है । काव्य में स्त्री तथा पुरुष दोनों का सौन्दर्य चित्रित किया गया है। हेमविजय की सौन्दर्यचित्रण की निश्चित प्रणाली नहीं है । परम्परागत नखशिखविधि के अतिरिक्त उसने व्यतिरेक तथा अन्य अलंकारों के माध्यम से मानव सौन्दर्य को वाणी देने का प्रयत्न किया है।
नारी-सौन्दर्य का चित्रण काव्यनायक की माता कोडिमदेवी के वर्णन का सहज अवयव है । इसमें मुख्यतः व्यतिरेक के द्वारा उसके अनवद्य सौन्दर्य की व्यंजना की गयी है। उसके मुख तथा नयनों से विजित चन्द्रमा तथा मृग आकाश में छिप गये (२.५६), मधुर कण्ठ से परास्त कोकिलाओं ने वन की शरण ली (२.६०), रम्भा, लक्ष्मी, गौरी आदि तो उसकी तुलना कैसे कर सकती हैं ? (२.६७) । कोडिमदेवी के पांवों के नखों का सौन्दर्य, उरोजों की पुष्टता तथा कटि की क्षीणता क्रमशः उत्प्रेक्षा और अर्थान्तरन्यास का स्पर्श पाकर और चमत्कारजनक बन गयी है। शुभ चिह्नों से अंकित उसके अरुण नख ऐसे प्रतीत होते थे मानो चरण-वन्दना करते समय दिक्कुमारियों के ललाट के सिन्दूर से तिलक अंकित हो गये हों। उसके स्तनों की पुष्टता की सम्पदा देखकर कटि ईया से क्षीण हो गयी । जड़ तथा दुर्मुख लोगों की विभूति से किसे ईर्ष्या नहीं होती ?
चक्रांकुशध्वजसरोजमुखांकिते य
त्पादद्वये दशनखा अरुणाः स्म भांति । लग्नाः समं किमु दिगब्जदृशां ललाट___ पट्टात्प्रणत्यवसरे वरधीरपुण्ड्राः ॥ २.६१ पीनत्ववित्तमतिशायि निरीक्ष्य यस्या
___ वक्षोजयोः ऋशिमभाक् कटिरीयॆयेव । स्तब्धात्मनामसिततुण्डभृतां विभूति
मालोक्य कस्य भुवि न प्रभवत्यसूया ॥ २.६२ कुमार जयसिह का सौन्दर्यचित्रण काव्य में पुरुष-सौन्दर्य का प्रतिनिधित्व