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जम्दूस्वामिचरित : राजमल्ल
जम्बूस्वामिचरित का आधारस्रोत
अन्तिम केवली के रूप में जम्बूस्वामी का रागरहित उदात्त चरित, जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों में, सम्मानित तथा प्रचलित है । दिगम्बर सम्प्रदाय का अनुयायी होने के नाते पण्डित राजमल्ल ने गुणभद्राचार्य के उत्तरपुराण को ( ७६.१-२१३) अपनी रचना का आधार बनाया है । राजमल्ल ने जिस प्रकार अपने काव्य में जम्बूस्वामी का इतिवृत्त निरूपित किया है, उसमें उत्तरपुराण में वर्णित जम्बूचरित से कोई तात्त्विक भेद नहीं है । जम्बूस्वामिचरित के रचयिता ने उत्तरपुराण की रूपरेखा अपनी प्रतिभा की तूलिका से रंग भरकर तेरह सर्गों की विशाल चित्रवीथी निर्मित की है ।
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काव्य के मुख्य पात्रों के पूर्वजन्मों के वर्णन का संकेत राजमल्ल को उत्तरपुराण से मिला है । गुणभद्र के अनुसार मुनि सौधर्म तथा जम्बूस्वामी, प्रथम भव में, वृद्ध ग्राम के वैश्य राष्ट्रकूट ( पत्नी रेवती) के पुत्र भगदत्त तथा भवदेव थे (७६१५३) । जम्बूस्वामिचरित में भवदेव के अग्रज का नाम भावदेव है और वे वर्द्ध मानपुर के ब्राह्मण आर्यवसु ( पत्नी सोमशर्मा) के पुत्र थे ।" दोनों ग्रन्थों में अग्रज पहले प्रव्रज्या ग्रहण करता है । अपने अनुज भवदेव को संयम की ओर प्रेरित करने के लिये जब वह नगर में आया, उस समय भवदेव, दोनों काव्यों के अनुसार, विवाहोत्सव में लीन था । राजमल्ल ने उसकी पत्नी का नाम नागवसू दिया है जबकि उत्तरपुराण में वह नागश्री नाम से ख्यात है तथा नागवसु उसकी माता है ( ७६.१५६ ) । रूपसी नवोढा के अनुराग के कारण भवदेव द्रव्य-संयमी बनकर विषयों को बराबर मन से टटोलता रहता है । उत्तरपुराण में उसे सुव्रता गणिनी के उपालम्भ से शान्तभाव की प्राप्ति होती ( ७६.१६७-६० ) । राजमल्ल के अनुसार नागवसू की जराक्रान्त काया को देखकर उसके हृदय में विषयों की भंगुरता तथा सुखों की नीरसता का उद्रेक होता है" (३.२२०-२२८) । उत्तरपुराण की तरह जम्बूस्वामिचरित में भी शिवकुमार ( पूर्वजन्म का भवदेव ) मुनि सागरदत्त ( भावदेव ) को देखकर आत्मीयता का अनुभव करता है तथा उसे जातिस्मरण हो जाता है" । गुणभद्र के विवरण में पोदनपुर के १५. हेमचन्द्र और जयशेखर दोनों के अनुसार बड़े भाई का नाम भवदत्त था । वे सुग्राम नगर के वासी थे तथा उनके माता-पिता का नाम क्रमशः रेवती तथा आर्यवान था । - जम्बूस्वामिचरित, पृ० १२, पा० टि० १ १६. हेमचन्द्र के अनुसार जिस समय भवदत्त ( भावदेव ) अपने अनुज को बोध देने के लिए आये, उस समय वहां के वातावरण को देखकर स्वयं भवदत्त का महाव्रत जर्जरित हो गया। साथी मुनि उनका उपहास करते हैं । वे पुनः भवदेव को गुरु के पास ले जाकर दीक्षित करते हैं। वही, पृ० १३. पा० टि० १
१७. उत्तरपुराण, ७६.१५१, जम्दूस्वामिचरित, ४.१०६