Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 462
________________ जम्दूस्वामिचरित : राजमल्ल ४४७ १६४१) से नौ वर्ष पूर्व लिखा जा चुका था। जम्बूस्वामिचरित सम्भवतः कवि की प्रथम रचता है । प्रतीत होता है कि विचारों की प्रौढ़ता के साथ-साथ राजमल्ल की रुचि अध्यात्म आदि गम्भीर विषयों की ओर बढ़ती गयी। काव्य में यद्यपि इसका प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है तथापि प्रथम सर्ग में आगरा का जो तत्परतापूर्वक विस्तृत वर्णन किया गया है, उसके आधार पर यह कल्पना करना असंगत न होगा कि जम्बूस्वामिचरित का निर्माण आगरा में ही हुआ था । काव्य का प्रणयन, अलीगढ़ के अन्तर्गत भटानि वा ग्राम के वासी गर्ग गोत्रीय शाह टोडर की प्रार्थना पर किया गया था। मथुरा के सिद्रक्षेत्र की यात्रा के समय जम्बूस्वामी, विद्युच्चर आदि के स्तूप देखकर शाह टोडर के मन में अन्तिम केदली का चरित सुनने की इच्छा उदित हुई। प्रस्तुत काव्य के द्वारा राजमल्ल कवि ने उस इच्छा की पूर्ति की । इसीलिये प्रत्येक सर्ग के आरम्भ में कवि ने टोडर की मंगलकामना की है तथा प्रथम सर्ग में उसके वंश का विस्तृत वर्णन किया है। कथानक जम्बूस्वामिचरित तेरह सर्गों का महाकाव्य है। इसकी कथावस्तु के चार निश्चित भाग हैं। प्रथम सर्ग काव्य की भूमिका निर्मित करता है। इसमें मुगल सम्राट अकबर की वंशपरम्परा, उसके शासन एवं शौर्य तथा शाह टोडर के कुल का वर्णन है । कवि ने इसे ठीक ही कथामुख की संज्ञा दी है। अगले साढे तीन सर्गों (२-४ तथा पांचवें का पूर्वार्ध) को मूलकथा की पूर्वपीठिका कहना उपयुक्त होगा। इनमें वीरप्रभु के समक्सरण की रचना तथा मगधराज श्रेणिक की जिज्ञासा के उत्तर में गौतम द्वारा विद्युन्माली देव, सौधर्म मुनि, यक्ष, विद्युच्चर आदि के पूर्वभवों का वर्णन किया गया है । वर्द्धमानपुर के ब्राह्मण आर्यवसु के पुत्र भवदेव का जीव, तीन योनियों में घूमने के पश्चात्, राजगृह के व्यापारी अर्हद्दास की पत्नी जि मती के गर्भ में, जम्बूस्वामी के रूप में, अवतीर्ण होता है । काव्य का कथानक जम्बूस्वामी का चरित-पंचम सा के उत्तरार्द्ध से प्रारम्भ होता है। अन्यान्य वस्तुओं के साथ जिनमती को स्वप्न में जम्बूफल दिखाई देता है जिसके परिणामस्वरूप उसके नवजात पुत्र का नाम जम्बू रखा जाता है । जन्मान्तर के अभ्यास के कारण उसने बाल्यावस्था में ही समस्त विद्याओं तथा कलाओं में दक्षता प्राप्त कर ली। छठे सर्ग में जम्बूकुमार के यौवन, वसन्तकेलि तथा उसके द्वारा श्रेणिक के उद्धत हाथी विषमसंग्रामसूर को दमित करने का वर्णन है। सातवें सर्ग में केरलनरेश मृगांक की पुत्री को हथियाने के लिये उसे आतंकित करनेवाले विद्याधर रत्नचूल को, घनघोर युद्ध में, परास्त करके वह अपने शौर्य की प्रतिष्ठा करता है। आठवें सर्ग में विद्याधर १३. जम्बूस्वामिचरित, १.७६-१३३ १४. वही, १.६४-७८

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