Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 461
________________ ४४३ जैन संस्कृत महाकाव्य ग्रहण करते हैं । विद्युच्चर जैसे नीच चोर को भी संयम द्वारा सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति होती है । यह जम्बूस्वामिचरित की पौराणिकता का प्रबल प्रमाण है कि इसके अनुशीलन के पश्चात् पाठक बरबस भंगुर भोगों से उद्विग्न होकर जीवन के श्रेय की ओर प्रेरित होता है । इस दृष्टि से यह काव्य 'रोमांचजनन क्षम' है' | कविपरिचय तथा रचनाकाल आलोच्य युग के अधिकांश महाकाव्यों के विपरीत जम्बूस्वाभिचरित दिगम्बर कवि की रचना है । दिगम्बर-परम्परा में राजमल्ल अथवा रायमल्ल नाम कई विद्वान् हुए हैं । प्रस्तुत जम्बूस्वामिचरित के रचयिता राजमल । कवि, जैनागम के महान् वेत्ता तथा प्रौढ पण्डित थे । उनकी विभिन्न कृतियों से स्पष्ट है कि पण्डित राजमल्ल केवल आचारशास्त्र के ही मर्मज्ञ नहीं थे, अध्यात्म, काव्य और न्याय में भी उन्हें विशेष दक्षता प्राप्त थी । 1 राजमल्ल ने अपने ग्रन्थों में आत्मपरिचय नहीं दिया है । अत: उनके कुल, गुरु-परम्परा आदि के विषय में अधिक ज्ञात नहीं है । कवि की लाटीसंहिता की प्रशस्ति से संकेत मिलता है कि वे हेमचन्द्र के आम्नाय के थे । पण्डित जुगल किशोर के विचार में ये हेमचन्द्र माथुरगच्छ तथा पुष्करगणान्वयी कुमारसेन" के पट्टशिष्य तथा पद्मनन्दिभट्टारक के पट्टगुरु, काष्ठासंघी भट्टारक हेमचन्द्र प्रतीत होते हैं, जिनकी कवि ने लाटीसंहिता के प्रथम सर्ग में बहुत प्रशंसा की है । इससे सहज अनुमान किया जा सकता है कि राजमल्ल काष्ठासंघी विद्वान् थे । उन्होंने अपने को हेमचन्द्र का शिष्य अथवा प्रशिष्य न कहकर आम्नायी कहा है। इसका तात्पर्य कदाचित् यह है कि पण्डित राजमल्ल मुनि नहीं थे । सम्भवतः वे गृहस्थाचार्य थे अथवा ब्रह्मचारी आदि पद पर प्रतिष्ठित थे। जम्बूस्वामिचरित के अतिरिक्त राजमल्ल की तीन अन्य कृतियाँ उपलब्ध हैं । लाटीसंहिता आचारशास्त्र का ग्रन्थ है । पंचाध्यायी और अध्यात्मक नलमार्तण्ड का प्रतिपाद्य अध्यात्म है । प्रान्त प्रशस्ति के गद्यात्मक भाग ? के चरित की रचना सम्वत् १६३२ (सन् १५७५ ) की चैत्र कृष्णा सम्राट् अकबर के राज्यकाल में, सम्पूर्ण हुई थी । अर्थात् यह लाटी - संहिता (सं० अनुसार जम्बूस्वामि अष्टमी को, मुगल ६. जम्बूस्वामिचरित्राद्यं रोमांचजननक्षमम् । वही, १३.१७५ १०. जम्बूस्वामिचरित्र के प्रथम सर्ग में भी भट्टारक कुमारसेन की पूर्वपरम्परा का संक्षिप्त वर्णन है (१.६०-६३ ) ११. लाटी - संहिता की भूमिका, पृ० २३ १२. अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्रीनूपविक्रमादित्यगतान्दसम्वत् १६३२ वर्षे चैत्र सुदि ८ वासरे पुनर्वसु नक्षत्रे श्रीअगंलपुरदुर्गे श्रीपातिसाहिजलादीन अकबर साहित्र वर्तमाने श्रीमत् काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे.... । प्रशस्ति ।

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