Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 460
________________ जम्बूस्वामिचरित : राजमल्ल ४४५ की गयी है, जिसके अन्तर्गत केवलज्ञान के आधारभूत सात तत्त्वों का विशद निरूपण हुआ है। अन्तिम सर्ग में द्वादश अनुप्रेक्षाओं के विवेचन के द्वारा काव्य के दार्शनिक पक्ष को समृद्ध बनाने का प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है। पौराणिक काव्य की एक अन्य मुख्य विशेषता- भवान्तरवर्णन भी जम्बूस्वामिचरित में पायी जाती है । काव्य नायक जम्बूस्वामी, उसकी चार पत्नियों, मुनि सौधर्म, यक्ष तथा विद्युच्चर के पूर्वभवों का काव्य में सविस्तार वर्णन किया गया है तथा वर्तमान जन्म के आचरण एवं प्रवृत्तियों को पूर्व जन्मों के संस्कारों और कर्मों का परिणाम माना गया है। वर्द्धमानपुरवासी ब्राह्मण आर्यवसु का पुत्र भवदेव, जन्मान्तर में, वीतशोका नगरी के चक्री महापद्म के पुत्र शिवकुमार के रूप में घोर तपश्चर्या के फलस्वरूप ब्रह्मोत्तर में विद्युन्माली देव बनता है और, कालान्तर में, स्वर्ग से च्युत होकर जम्बूस्वामी के रूप में जन्म लेता है। मुनि सौधर्म, पूर्व जन्म का, जम्बूस्वामी का अग्रज भावदेव है। चम्पापुरी के अग्रणी धनवान् सूरसेन की चार पत्नियाँ धर्माचरण के कारण ब्रह्मोत्तर में विद्युन्माली की पत्नियाँ बनीं । वर्तमान जन्म में वे ही जम्बूस्वामी की पत्नियाँ हैं । यक्ष पूर्ववर्ती जन्म में अर्हद्दास का अनुज जिनदास था और विद्युच्चर हस्तिनापुर के राजा संवर का पुत्र । जम्बूस्वामिचरित में प्रतिपाद्य को रोचक तथा ग्राह्य बनाने के लिये कथा के भीतर अवान्तर कथाओं का समावेश करने की प्रवृत्ति का कराल रूप दिखाई देता है। काव्य का एक भाग उन कथाओं ने हडप लिया है। जिनके द्वारा जम्बूकुमार की नवविवाहित पत्नियाँ तथा विद्युच्चर उसे वैराग्य से विरत करने का प्रयत्न करते हैं । काव्य में अनेक अतिप्राकृतिक घटनाओं का समाहार किया गया है। स्वर्ग के देवता तथा अप्सराएँ वर्द्धमान जिन के समवसरण की रचना करते हैं। मुनि सागरचन्द्र को देखकर शिवकुमार को जातिस्मरण हो जाता है। पौराणिक कृति की भाँति जम्बूस्वामिचरित की रचना का उद्देश्य पुण्यार्जन करना है। उसी प्रवृत्ति के अनुरूप इसमें स्वधर्म का गौरवगान तथा परमधर्म पर आक्षेप किया गया है । काव्य में, जहाँ एक ओर जैन धर्म की आराधना करने को प्रेरित किया गया है। वहाँ अद्वैत तथा बौद्धधर्म की प्रकारान्तर से खिल्ली उड़ायी गयी है । पौराणिक प्रवृत्ति के अनुरूप जम्बूस्वामिचरित की समाप्ति ग्रन्थ-माहात्म्य से होती है । इसकी भाषा में पुराणसुलभ खुरदरापन तथा व्याकरणविरुद्ध प्रयोगों की भरमार है । स्तोत्रों का समावेश भी यथास्थान किया गया है। इसकी पौराणिकता के अनुसार जम्बूस्वामिचरित का पर्यवसान शान्तरस में हुआ है। काव्य के सभी पात्र, अन्ततोगत्वा, तापसव्रत ५. जम्बूस्वामिकथाव्याजादात्मानं तु पुनाम्यहम् । वही, १.१४४ ६. जैनो धर्मः क्षणं यावद्विस्मार्यो न महात्मभिः। वही, २.१२४ ७. वही, २. ११२-११५ ८. वही, १३. १७०-१७७

Loading...

Page Navigation
1 ... 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510