Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 467
________________ ४५२ जैन संस्कृत महाकाव्य इत्यध्रुवं जगत्सर्वं नित्यश्चात्मा सनातनः । अतः सद्धिर्न कर्त्तव्यं ममत्वं वपुरादिषु ॥ १३.१७ अंगीरस के अतिरिक्त जम्बूस्वामिचरित में शृंगार, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, बीभत्स तथा वात्सल्य का भी यथास्थान, आनुषंगिक रूप में, व्यापक चित्रण हुआ है। वैराग्य-प्रधान काव्य में अंगी रस के विरोधी शृंगार के उभय पक्षों का सोत्साह निरूपण आपाततः अटपटा लग सकता है, किन्तु यह महाकाव्य-परम्परा में रसराज के गौरव तथा कवि द्वारा उसकी स्वीकृति का प्रतीक है। शान्त के प्रवाह में शृंगार की माधुरी को निमज्जित न करना राजमल्ल की साहित्यिक ईमानदारी है। वीतशोका नगरी के मदमाते युवकों की क्रीड़ाओं, शिवकुमार के रतिवर्णन तथा जम्बूकुमार की नवोढा पत्नियों की कामपूर्ण चेष्टाओं में सम्भोग-शृंगार का हृदयस्पर्शी चित्रण हुआ है। शिवकुमार की केलियों के इस प्रसंग में शृंगार की छटा दर्शनीय है। वनोपवनवीथीषु सरितां पुलिनेषु च । सरःसु जलकीडाय कान्ताभिरगमन्मुदम् ।। आलिंगनं ददौ स्त्रीणां कदाचिद् रतकर्मणि । तासां स्मितकटाक्षश्च रंजमानो मुहुर्मुहुः। कदाचिन्मानिनी मुग्धां कोपनां प्रणयात्मिकाम् । नयति स्म यथोपायमनुनयं नयात्मकः ॥४.७०-७२ द्रव्यसंयमी भवदेव की नवयौवना पत्नी को पुनः पाने की अधीरता में विरह की व्यथा है । भवदेव अग्रज के गौरव के कारण संयम तो ग्रहण कर लेता है परन्तु नव-विवाहिता प्रिया की याद उसके हृदय को निरन्तर मथती रहती है । विरही तापस के कामाकुल उद्गार विप्रलम्भ शृंगार की सष्टि करते हैं। पर्यटन्पथि पांथः संश्चितति स्म स सस्मरः । अद्य भंजामि कान्तां तां सालंकारां सकौतुकाम् ॥ ३.१६२ तारुण्यजलधेर्वेलां कम्रां कामदुधामिव । मत्स्यीमिव विना तोयं मामृते विरहातुराम् ॥ ३.१६३ परन्तु शृंगार पवित्रतावादी जैन कवि के मन को अभिभूत नहीं कर सका। उपर्युक्त भावोच्छ्वास के पश्चात् भी उसके लिए नारी मल-मूत्र का घृणित पात्र, सर्प से अधिक भयंकर तथा पुरुष का अभेद्य बन्धनजाल है ।२२ राजमल्ल की तूलिका ने वीररस के भी ओजस्वी चित्र अंकित किये हैं। शृंगार की भाँति वीररस भी आधिकारिक कथा का अवयव बन कर आया है। पौराणिक नायक के पराक्रम की प्रतिष्ठा के लिए महाकाव्य में उसके युद्धों का वर्णन २२. जम्बूस्वामिचरित, १०.६-१०,१३

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