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जैन संस्कृत महाकाव्य
मोरु हंस महसीहर माडी, राहि मानन शिवेन भवे त्वत् ।
आज देव किरि पाप पखाली मोहमेष न जलाशयपाला ॥ ६.७४ ये पद्य विद्वत्ता को चुनौती हैं। टीका के बिना इनका वास्तविक अभिप्राय समझना विद्वानों के लिये भी सम्भव नहीं है। माणिक्यसुन्दर को धन्यवाद, उसने इन पद्यों को स्वोपज्ञ व्याख्या से सुगम बना दिया है।
आठवें सर्ग में, हंसी तथा विजयचन्द्र के वार्तालाप के अन्तर्गत, प्रहेलिकाओं तथा समस्यापूर्ति से पाठक को चमत्कृत किया गया है। दोनों का एक-एक उदाहरण पर्याप्त होगा।
पूजायाः किं पदं प्रोक्तं कृतज्ञो मन्यते च किम् ? कि प्रियं सर्वलोकानामुपदेशो मुनेस्तु कः ? ॥ ८.५०३ हंसी--"सुकृतं कार्यम्" अथ पुरोधाः प्रोचे–'यूकया गलितो गजः' । हंसी-वटपत्रस्थबालस्योदरस्थं चेज्जगत्त्रयम् ।
तदाऽकस्मादिदं न स्याद् यूकया गलितो गजः ॥ ८.५०५ अलंकार-विधान
अलंकार किस सीमा तक भावाभिव्यक्ति में सहायक हो सकते हैं, इसका निदर्शन श्रीधरचरित की अलंकार-योजना में देखा जा सकता है। जो भाव अन्यथा दबे रह सकते थे, वे विविध अलंकारों का स्पर्श पाकर सहसा स्फूर्त हो गये हैं। अनुप्रास तथा यमक कवि के विशेष अलंकार हैं । काव्य के अधिकांश में ये दो अलंकार, किसी न किसी रूप में, सदैव विद्यमान हैं। अन्य अलंकारों में भी बहुधा ये अनुस्यूत हैं । कवि का अनुप्रास उसका मानस-पुत्र है। काव्य के पच्चानवें प्रतिशत पद्यों में अनुप्रास का प्रयोग मिलेगा। अनुप्रास की सुरुचिपूर्ण योजना काव्य में मधुर झंकार को जन्म देती है। विजयचन्द्र के विलासवर्णन में अनुप्रास का माधुर्य दर्शनीय है।
रमणो रमणीयांगी रममाणो रमामयम् । रमारमणवन्मेने रमणीनां मणिमिमाम् ॥ ६.३५
अन्त्यानुप्रास का काव्य में इतना व्यापक प्रयोग हुआ है तथा इसके इतने मधुर उदाहरण काव्य में भरे पड़े हैं कि पाठक चयन करते समय असमंजस में पड़ जाता है। दो ललित उदाहरण पहले उद्धृत किये जा चुके हैं । यमक को भी काव्य में व्यापक स्थान मिला है। कवि ने अभंग तथा सभंग दोनों प्रकार के यमक का उदारता से प्रयोग किया है। इस पद्य में दोनों कोटियों का यमक प्रयुक्त किया है। माणिक्यसुन्दर के यमक में प्रायः क्लिष्टता नहीं है। इसीलिये यह काव्य की प्रभावशीलता तथा सौन्दर्यवृद्धि में सहायक बना है ।