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पार्श्वनाथ काव्य : पद्मसुन्दर
नीति के प्रतिदपन में भी इसी कोटि की भाषात्मक सरलता दिखाई देती है । कालयवन के अपमानजनक प्रस्ताव का प्रतिवाद करने के लिये अर्ककीत्ति का मन्त्री जिस स्मृतिविहित राजधर्म का निरूपण करता है, उसमें कतिपय नीतिपरक उक्तियाँ सुगमता की कान्ति से शोभित हैं ।
दुर्मदानां विपक्षाणां वधायोद्योगमाचरेत् ।
अलसो हि निरुद्योगो नरो बाध्यते शत्रुभिः ॥ ४.१०१
मन्त्रः स्यादषट्कर्णस्तृतीयादेरगोचरः ।
स च बुद्धिमता कार्यः स्त्रीधूर्तशिशुभिर्न च ॥ ४१०४
पार्श्वनाथकाव्य में समासबहुला भाषा का बहुत कम प्रयोग किया गया है । जहाँ वह प्रयुक्त हुई है, वहाँ भी शरत् की नदी की भाँति वह अपना 'प्रसाद' नहीं, छोड़ती । मंगलाचरण के दीर्घ समास, अनुप्रास तथा प्रांजलता के कारण, अर्थबोध में बाधक नहीं हैं (१.१) ।
पद्मसुन्दर को शब्दचित्र अंकित करने में अद्भुत कौशल प्राप्त है । शब्दचित्र की सार्थकता इस बात में है कि वर्ण्य विषय अथवा प्रसंग को ऐसी शब्दावली में अंकित किया जाये कि वह पाठक के मानस चक्षुओं को तत्काल प्रत्यक्ष हो जाए । छठे सर्ग में पार्श्व प्रभु के विहार के अन्तर्गत प्रभंजन तथा महावृष्टि के वर्णन की यह विशेषता उल्लेखनीय है ।
कादम्बिनी तदा श्यामांजनभूधरसन्निभा । व्यानशे विद्युदत्युग्रज्वालाप्रज्वलिताम्बरा ।। ६.४७ गर्जितैः स्फूर्जथुवान ब्रह्माण्डं स्फोटयन्निव । मापस्तडिदुल्लासैर्वर्षति स्म घनाघनः ॥ ६.४६ आसप्तरात्रादासारैझंझामारुतभीषणैः ।
जलाप्लुता मही कृत्स्ना व्यभादेकार्णवा तदा ॥ ६.५०
पार्श्वनाथ काव्य की भाषा में रोचकता की वृद्धि करने के लिये कवि ने कुछ भावपूर्ण सूक्तियों का समावेश किया है। उनमें कुछ सरस सूक्तियाँ यहाँ दी जाती हैं ।
१. कामरागो हि दुस्त्यजः । १.२१
२. जडानामुच्चसंगोऽपि नीचैः पाताय केवलम् । ३.१४४ ३. किं तत्तपो यदिह भूतकृपाविहीनम् । ५.५३
अलंकारविधान
पद्मसुन्दर ने काव्य में अलंकारों की स्थिति तथा उपयोगिता के सम्बन्ध में अपना निश्चित मत प्रकट किया है। पार्श्व के सौन्दर्य वर्णन में प्रयुक्त एक पद्य को