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जैन संस्कृत महाकाव्य
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अनादि, सनातन, विशुद्ध, ज्ञाता तथा द्रष्टा है । द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत है । उसके पर्याय भंगुर हैं। इस दृष्टि से उसकी तीन अवस्थाएँ मानी गयी हैं - उत्पाद, व्यय तथा ध्रुवता । विभिन्न मतावलम्बी अपने सिद्धांत के अनुरूप आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं । उसकी वास्तविकता अनेकान्त के द्वारा ही जानी जा सकती है । भव तथा मोक्ष आना की दो अवस्थाएँ हैं । इस चतुरंग संसार में भटकना 'भव' है । भवबन्धन के समस्त हेतुओं का अभाव तथा समूचे कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है । वह अखण्ड आनन्द की स्थिति है । सम्यग् ज्ञान, दर्शन तथा चरित्र मोक्षप्राप्ति के सोपान हैं ।
जीव के अतिरिक्त जैन दर्शन में अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष, ये आठ पदार्थ माने गये हैं । पुण्य से इतर पाप है । वह ८२ प्रकार का माना गया है । आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष का विश्लेषण पद्मनाभकायस्थ के यशोधरचरित की समीक्षा में किया जा चुका है ।
मिथ्यात्व कषाय, योग, अविरति तथा प्रमाद बंधन के हेतु है । चरित्र समस्त दोषपूर्ण योगों के परित्याग का नाम है । सम्यक् दर्शन से ही ज्ञान तथा चारित्र की सार्थकता है । दर्श | और ज्ञान के बिना चारित्र निष्फल है" । जैन धर्म में साधु के लिये पांच महाव्रतों का विधान है । श्रावक के लिये बारह अणुव्रतों का पालन करना आवश्यक है । यथार्थवादी, आप्त पुरुष होता है । उससे भिन्न व्यक्ति को आप्ताभास कहते हैं । आगम आप्त पुरुषों के ही वचनों का संकलन है" ।
भाषा
प्रचारवादी दृष्टिकोण से रचित पौराणिक काव्य में जो सुबोध भाषा अपेक्षित है, पार्श्वनाथकाव्य में उसी का प्रयोग हुआ है । पद्मसुन्दर की भाषा का प्रमुख गुण उसकी सहजता है, किंतु वह प्रौढता तथा कान्ति से शून्य नहीं है । सामान्यतः पार्श्वनाथकाव्य की भाषा को प्रांजल कहा जाएगा । युद्ध-वर्णन जैसे कठोर प्रसंग में भी वह अपने इस गुण को नहीं छोड़ती, इसका संकेत पार्श्व तथा यवन के युद्ध-वर्णन से मिलता है । पार्श्व के जन्म से उत्पन्न देवताओं के हार्दिक उल्लास की अभिव्यक्ति
जिस भाषा में हुई है, वह अपने वेगमात्र से प्रसन्नता की द्योतक है।
केsपि नृत्यन्ति गायन्ति हसंत्यास्फोटयन्त्यथ । वल्गन्त्यन्ये सुपर्वाणः प्रमोदभरमेदुराः ॥ ३.७६ अवतीर्य क्रमात्सर्वे नभसः काशिपत्तनम् । प्रादुर्जयारवोन्मिश्रदुन्दुभिध्वान डम्बराः ।। ३.७६
१८. वही, ६.११६-१४२ १६. वही, ६.१४३-१४४