Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 455
________________ ४४० जैन संस्कृत महाकाव्य था। छात्र अपने अपराध अथवा प्रमाद के लिये सिर झुका कर तत्काल क्षमा-याचना करता था। गुरु ज्ञान का अक्षय स्रोत था और उसकी तुलना में छात्र मात्र 'अणु' । किन्तु गुरु उद्धत छात्रों को शारीरिक दण्ड देने में संकोच नहीं करता था । पुत्री की भाँति विद्या का सुपात्र को देना ही अर्थवान् माना जाता था। धनार्जन की तरह विद्यार्जन के लिये एकाग्र निष्ठा तथा अथक परिश्रम अनिवार्य था। अवस्वापनिका, प्रज्ञप्ति, तालोद्घाटनी, तथा व्योमगामिनी विद्याओं का उल्लेख काव्य में हुआ है। शुद्ध भाषा, पाण्डित्य की परिचायक मानी जाती थी। रोग के साथ शरीर का चिरन्तन सम्बन्ध है । कुशल वैद्य के बिना रोगी का उपचार अशक्य था । अतः रोगी चिकित्सक के सम्मुख अपनी गोपनीय व्याधि भी निस्संकोच प्रकट कर देता था । रोग का सही निदान किये बिना चिकित्सा निरर्थक थी। बीमारी में पथ्यापथ्य का विचार उपचार का आधार है। ज्वरपीड़ित व्यक्ति के लिये कुपथ्य से बचना नितान्त आवश्यक था अन्यथा दूध भी विष बन सकता था। विषवैद्य सर्पदंश का इलाज दिव्य मन्त्रों से भी करते थे। अपनी सन्तान का विवाह प्रायः माता-पिता ही निश्चित करते थे, यद्यपि अपवाद रूप में गान्धर्व विवाह का प्रचलन भी था । गार्हस्थ्य जीवन के सुखमय यापन के लिये कन्या को विदाई के समय उपयुक्त शिक्षा दी जाती थी। उसे दहेज के रूप में धनादि मिलता था।" अपराधवृत्ति उतनी ही प्राचीन है जितनी समाज की संस्था। हेमविजय के समय में परदारागमन आदि घृणित अपराध करने वालों को अत्यन्त कठोर दण्ड देने का प्रावधान था। परदारागामी को गधे पर नगर के चौराहों में घुमा कर अपमानित किया जाता था। पुलिस उस पर डण्डे बरसाती तथा मुष्टिप्रहार करती थी । दण्डित व्यक्ति सिर झुका कर और हाथ से मुंह ढककर आँसू बहाता हुआ चलता था। नगर में घुमाकर उसे सूली चढ़ा दिया जाता था। कभी-कभी अपराधी को अपमानित करके छोड़ दिया जाता था। चोर पुलिस से बचने के लिये तपस्वी का भेस बना कर घूमते थे, परन्तु सतर्क कोतवाल की पैनी दृष्टि को वे धोखा नहीं दे सकते थे। कोतवाल उन्हें रस्सियों से बाँध कर कड़ी सज़ा देता और जेल में ठूस देता था। जेल में उन्हें दारुण यातनाएँ दी जाती थीं । सज़ा भोगने के बाद जब वे कारागृह से छूटते थे तो उनका चर्मावृत आस्थिपंजर मात्र शेष रह जाता था। राजधन की चोरी करने वालों ३६. वही, ४.२२५, १.१५०, १५७, ३.७२, ४.४७२, ६.३४, ३.२३६, ४.२३३, ६.२७१, ३.१६१. ३७. वही, २.१६२, १.१३७, २.१६१, ४.४४४, ५.३२०, ३.३७६ ३८. वही, ४.६२०, ३.२३४, ४.६७०.

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