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पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि
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तथा मसृण पदावली में पाठक को द्रवित करने की पूर्ण क्षमता है । यहाँ भाषा का वह गुण विद्यमान है, जिसे साहित्यशास्त्र में 'माधुर्य' कहा गया है ।
पार्श्वनाथचरित की भाषा में बहुधा एकरूपता विद्यमान है किन्तु वह लचीलेपन से रहित नहीं है । विन्ध्याचल के भद्रजातीय हाथी की उद्धत चेष्टाओं तथा मरुभूति हाथी की केलियों" के चित्रण की भाषा इसका भव्य निदर्शन है ।
विजय की वर्णन - निपुणता प्रशंसनीय है । अपनी तत्त्वग्राही दृष्टि से वह वर्ण्य विषय की समग्रता को हृदयंगम करने तथा उसे वाणी देने में समर्थ है। रात्रि सरोवर, हाथी के उत्पात आदि का वह समान सहजता से चित्रण कर सकता है । द्वितीय सर्ग में दावाग्नि का वर्णन, इस दृष्टि से, विशेष उल्लेखनीय है ।
अलंकार - विधान
विजय ने यद्यपि अपने काव्य की 'अलंकृतिधोरणी १९ की साग्रह चर्चा की है किन्तु उसका आदर्श 'अलंकारों का यथोचित निवेश' ३० है । अपने आदर्श के अनुसार उसने काव्य को सायास अलंकृत करने का प्रयत्न नहीं किया है । यह उसका उद्देश्य भी नहीं है । काव्य-रचना के सहज अवयव बन कर जो अलंकार आए हैं, उन्हें ही काव्य में स्थान मिला है ।
विजय का खास अलंकार उपमा है । काव्य में इसी का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। हेमविजय की उपमाएँ बहुत अनूठी हैं । इसका कारण उसके अप्रस्तुतों की सजीवता तथा मार्मिकता है। पार्श्वनाथचरित के उपमान उसके लोकज्ञान तथा पैनी दृष्टि के परिचायक हैं | नरवर्मा राज्य भार से इस प्रकार विरक्त हो गया जैसे रोगी कुपथ्य को छोड़ देता है ।" च जल में ऐसे फैल गया जैसे दुर्जन को बतायी गोपनीय बात । प्रकृति पर आधारित उपमान कवि की प्रकृति के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं। गर्भिणी वामा पीले मुख से ऐसी लगती थी जैसे फल से पकी बेल । " विष से ब्राह्मण की चेतना इस प्रकार लुप्त हो गयी जैसे बादल से चन्द्रकला । प्रसर्पता विषेणाशु क्षणेनास्य द्विजन्मनः ।
पिहिता चेतनादभ्रात्रेणेव शशिनः कला ॥। ६.५
२७. वही, १.१७०-१७२
२८. वही, १.१७३ - १७६
२६. लसदलंकृतिधोरणीधारिणी । वही, ६.४७०
३०. यथौचित्यम लंकारान् स्थापयामास वासवः । वही, ४.२६१
३१. वही, ४.४४४
३२. वही, ३.४२८ ३३. वही, ४.१०१