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पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि
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यौवना सुन्दरी है, लावण्य-लक्ष्मी का केलिगृह । उसका नखशिखवर्णन उसके सौन्दर्य की अनवद्यता की स्वीकृति है। .
वह गुणज्ञा युवती है। किन्नर-मिथुन से राजकुमार पार्श्व के गुणों का वर्णन सुनकर वह उस पर मुग्ध हो जाती है। अपने प्राणवल्लभ को पाने के लिये उसकी अधीरता इतनी बढ़ जाती है कि वह उसकी तीव्रता से चेतना-शून्य-सी बन जाती है। कलिंग के यवन शासक ने उसे छल-बल से हस्तगत करने का पूर्ण प्रयत्न किया किंतु उसके लिये जगत् पार्श्वमय बन चुका है। पार्श्व के अस्तित्व के अतिरिक्त समूचा जगत् उसके लिए शून्य है । चिरप्रतीक्षा के पश्चात् जब पार्श्व उसका विवाहप्रस्ताव स्वीकार करते हैं, उसका मन आह्लाद से झूम उठता है । यह उसके मनोरथ की चरम परिणति है। अन्यान्य व्यक्तियों के साथ वह भी अपने केवलज्ञानी पति से दीक्षा ग्रहण करती है। अश्वसेन
अश्वसेन काव्यनायक पार्श्वनाथ के पिता हैं। काव्य में उनके चरित्र का विकास नहीं हो सका है। केवल उनके पुत्र-वात्सल्य की एक मधुर झांकी देखने को मिलती है । पुत्र-प्राप्ति से वे ऐसे प्रफुल्लित हो जाते हैं, जैसे जलधारा से कदम्ब । उस समय उनके लिये कुछ भी अदेय नहीं था। पूत्रजन्म के उपलक्ष्य में उन्होंने राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्त कर दिया और समूचे कर समाप्त कर दिये । वामा
वामा पार्श्वप्रभु की माता है । उसे परम्परागत चौदह स्वप्न दिखाई देते हैं जिनके फलस्वरूप उसे विभूतिमान् पुत्र की प्राप्ति होती है । वह भी पति के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करती है। अन्य पात्र
पूर्व भवों के पात्रों में किरणवेग, वज्रनाभ, वज्रबाहु तथा स्वर्णबाहु उल्लेखनीय हैं। इनमें स्वर्णबाहु चक्रवर्ती सम्राट् है। उसने षट्खण्डविजय से अपने वर्चस्व तथा चक्रवर्तित्व की प्रतिष्ठा की है। किन्तु उन सबके चरित तंग घेरे में सीमित हैं और उनका एक शैली में पल्लवन किया गया है। इसीलिये उनके चरित्रों में नीरस एकरूपता है । वे पूर्ण तल्लीनता से वैभव का भोग करते हैं परन्तु किसी घटना अथवा मुनि के उपदेश से विरक्ति का उद्रेक होने पर उसे तृणवत् त्याग कर संयम की लक्ष्मी स्वीकार करते हैं। भाषा
पहिले कहा गया है, पार्श्वनाथचरित की रचना यशप्राप्ति अथवा विद्वत्ताप्रदर्शन के लिये नहीं हुई है । हेमविजय के अनुसार काव्य का गौरव मनोरम पदशय्या