Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 433
________________ जैन संस्कृत महाकाव्य बदल कर कहा जा सकता है कि कवि के विचार में अलंकारों से काव्य-सौन्दर्य में उसी तरह वृद्धि होती है जैसे यौवन से शारीरिक सौन्दर्य खिल उठता है। अन्य कई स्थानों पर भी उसने काव्य को आग्रहपूर्वक 'सालंकार' कहा है। इससे यह निष्कर्ष निकालना तो उचित नहीं कि पद्मसुन्दर अलंकारवादी कवि हैं अथवा पार्श्वनाथकाव्य में जानबूझकर अलंकार आरोपित किये गये हैं किंतु यह तथ्य है कि भावों को समर्थ बनाने के लिये कवि ने अलंकारों का रुचिपूर्वक प्रयोग किया है । उपमा के प्रति उसका विशेष पक्षपात है। प्रकृति पर आधारित उसके उपमान सटीक हैं और वे वर्ण्य विषय को स्पष्ट करने में समर्थ हैं । अर्ककीत्ति के चक्रों से शत्रु सेना का ऐसे क्षय हो गया जैसे सूर्य की प्रचण्ड किरणों से हिमराशि पिघल जाती है । गर्मी में हिम को पिघलती देखकर सरलता से अनुमान किया जा सकता है कि कालयवन की सेना कैसे ध्वस्त हुई होगी? चकरस्य द्विषच्चक्र क्षयमापादितं क्षणात् । मार्तण्डकिरणैस्तीक्ष्ण हिमानीपटलं यथा ॥ ४.१६० इसी युद्धवर्णन में कुछ रोचक श्लेषोपमाएँ भी प्रयुक्त हुई हैं। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। कर्णलग्ना गुणयुताः सपत्राः शीघ्रगामिनः । दूता इव शरा रेजुः कृतार्थाः परहृद्गताः ॥ ४.१५२ वक्रो क्त के प्रति रुचि न होने के कारण कवि ने स्वभावोक्ति को काव्य में पर्याप्त स्थान दिया है। महावृष्टि का पूर्वोद्धृत वर्णन इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। अन्य जैन काव्यों के समान पार्श्वनाथकाव्य में नगर का वर्णन परिसंख्या के द्वारा किया गया है। इस दृष्टि से वाराणसी का यह वर्णन उल्लेखनीय है । धन्विष्वेव गुणारोपः स्तब्धता यत्र वा मदः । करिष्वेवातपत्रेषु दण्डो भंगस्तु वीचिषु ॥३.७ पार्श्वनाथकाव्य में अतिशयोक्ति के दो रूप मिलते हैं। एक तो वह जिसमें वर्ण्य विषय की असाधारणता द्योतित करने के लिये असम्भव कल्पनाएँ की जाती हैं। एक ऐसी अनूठी अतिशयोक्ति सौन्दर्यवर्णन के प्रकरण में उद्धृत की चुकी है। दूसरी अतिशयोक्ति वह है, जो किसी वस्तु के अकल्पनीय गुणों अथवा प्रभावशालिता का वर्णन करती है । निम्नोक्त अतिशयोक्ति इसी प्रकार की है। जिनस्नानाम्बुपूरेण नृलोके निगमादयः । निरीतयो निराकाः प्रजाः सर्वाः पवित्रिताः ॥ ३.१२३ तृतीय सर्ग में पार्श्व की स्तुति में विरोधाभास के प्रयोग से जिनेश्वर का स्वरूप और प्रस्फुटित हो गया है । २०. सालंकारः कवेः काव्यसन्दर्भ इव स व्यभात् । वही, ३.१५६ २१. वही, १.२,७.६४,७०

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