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जैन संस्कृत महाकाव्य
असंदिग्ध है, यद्यपि इन रसों में उसने विभावों की अपेक्षा अनुभावों की अभिव्यक्ति को अधिक महत्त्व दिया है। सभाभूमि में दिग्विजयी स्वर्णबाहु के बाण के प्रहार से मगधराज बौखला उठता है। उसके क्रोध के चित्रण में रौद्ररस अनुभावों के रूप में प्रकट हुआ है।
पतितं पत्रिणं पृथ्व्यां ततो मागधतीर्थराट् । भोगीवात्मीयहन्तारं वीक्ष्य कोपपरोऽजनि ॥ ३.३५१ कृतान्तकार्मुकाकारभृकुटीभंगभीषणः । वायुपूरितभस्त्राभनासासम्पुटदारुणः ॥ ३.३५२ आताम्रीकृतनयनस्त्रिरेखाकृतभालभूः । इत्यसौ वचनं प्रोच्चैः कोपोद्गारमिवावमत् ॥ ३.३५३
पर्वताकार मरुभूति हाथी के अचानक आक्रमण से काफिले के लोगों में भगदड़ मच जाती है । उनकी खलबली के वर्णन में भयानक रस का परिपाक हुआ है।
सोऽथ सार्थजनान् दन्तावलः प्रोद्दामधामभृत् । भाययामास दन्ताभ्यां भुजाभ्यामिव दन्तिराड् ॥ १.२८६ आरोहन भूरुहान् केऽपि दावार्ता वानरा इव । गह्वरे प्राविशन् केऽपि व्याधत्रस्ता मृगा इव ॥ १.२८७ मूछितान्येऽपतन केऽपि विषाघ्राता इव क्षितौ। पर्याटन्नारटन्तश्च केऽपि भूतातुरा इव ॥ १.२८८
वात्सल्यरस की मधुर छटा पार्श्व के शैशव के वर्णन में दिखाई देती है। अपनी डगमगाती चाल, धूलिधूसरित अंगों, तुतलाती वाणी तथा अन्य बालकेलियों से वह माता-पिता के हृदय को आनन्दित करता हुआ घर के आंगन में ठुमकता है।
इस प्रकार पार्श्वनाथचरित में मुख्य रसों की निष्पत्ति हुई है, जो काव्य को रसार्द्र बना कर पाठक को रसचर्वणा कराने में पूर्णतया समर्थ हैं। प्रकृति-चित्रण
हेमविजय ने अपने चरित को महाकाव्य बनाने का तत्परता से प्रयत्न किया है। महाकाव्य-परम्परा के अनुरूप उसने पार्श्वनाथचरित में नगर, पर्वत, रात्रि, दावाग्नि, ऋतुओं के ललित वर्णन किये हैं, जो इस इतिवृत्तात्मक काव्य की पौराणिक नीरसता को मेट कर उसमें रोचकता का स्पन्दन करते हैं। माघोत्तर कवियों की तरह हेमविजय ने प्रकृति के न तो उद्दीपन-पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है और न उस पर मानवीय चेतना का आरोप किया है । उसने बहुधा प्रकृति के स्वाभाविक रूप का चित्रण किया है, किन्तु हेमविजय प्रकृति-चित्रण की समवर्ती शैली के प्रभाव से न बच सका। फलतः, पार्श्वनाथ में प्रायः सर्वत्र प्रकृति के संश्लिष्ट वर्णन दृष्टिगत २४. वही, ४.३८६,३६२,३६४.